Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 1
स्वरूप - संबोधन - परिशीलन
दोनों का विपाक जब उदय में आता है, तब जीव पूर्वापर के विवेक को खो देता है और नवीन अकुशल कर्मों का बन्ध कर लेता है, कुशल कर्म-उदय पर अतिभोग-वृत्ति से अभिनव कर्मों को संचित करता है, अकुशल कर्मों का उदय अति-शोक-वृत्ति से पुनः अकुशल कर्मों का संचय करता है, पूर्व में किये गये तीव्र कुशल यानी पुण्य कर्म का द्रव्य प्रचुर होने पर वर्तमान पर्याय में फलित होने पर अशुभ करते हुए भी अच्छा ही अच्छा होते दिखता है, न कि पाप करने से; समझे.... । सुख धर्म से ही मिलता है, अधर्म से नहीं। यदि पूर्व पर्याय का तीव्र अकुशल कर्म / पाप-कर्म द्रव्य प्रचुर रूप से संगृहीत है, तो उसके उदय काल में वर्तमान धर्म करते हुए भी दुःख होता है । यह दुःख वर्तमान धर्म का फल नहीं है, अपितु पूर्व में किये गये तीव्र अशुभ कर्म का फल आज फलित हो रहा है, - ऐसा स्वस्थ बुद्धि से समझें। मंगल से अमंगल कभी नहीं होता, अमंगल से मंगल भी कभी नहीं होता; जो विपर्यास दिखता है, वह पूर्व के कुशलाकुशल कर्मों का विपाक समझकर समता धारण करना चाहिए तथा प्रत्येक मंगल कार्य करने से पूर्व मंगलाचरण अनिवार्य रूप से करना चाहिए एवं बिना मंगलाचरण किये किसी भी कार्य को प्रारंभ नहीं करना चाहिए । मंगलाचरण करने से विद्या एवं विद्या-फल की प्राप्ति होती है। शिष्य शीघ्र श्रुत- पारगामी होते हैं, यह आगम-वचन है
पढ़मे मंगलकरणे सिस्सा सत्थस्स पारगा होंति । मज्झिम्मे णीविग्घं विज्जा विज्जाफलं चरिमे । ।
-तिलोयपण्णत्ति, 1 / 29
अर्थात् शास्त्र के आदि में मंगल पढ़ने पर शिष्य-जन शास्त्र के पारगामी होते हैं, मध् य में मंगल करने पर निर्विघ्न विद्या की प्राप्ति होती है और अंत में मंगल करने पर विद्या का फल प्राप्त होता है ।
पुण्णं पूद- पवित्ता पसत्थ - सिव-भद खेम - कल्लाणा । सुह- सोक्खादी सव्वे णिद्दिट्ठा मंगलस्स पज्जाया । ।
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-तिलोयपण्णत्ति, 1 /8
अर्थात् पुण्य, पूत, पवित्र, प्रशस्त, शिव, भद्र, क्षेम, कल्याण, शुभ और सौख्य इत्यादि सब मंगल के ही पर्याय अर्थात् समानार्थक शब्द कहे गये हैं । यहाँ पर प्रश्न हो सकता है कि इन्हें मंगल क्यों कहा जाता है?