Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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श्लो. : 1
स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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जब गुण व आत्मा गुणी का ही अभाव जो जाएगा, तो-फिर मोक्ष का सुख कौन प्राप्त करेगा? .....इसलिए स्व-प्रज्ञा का विवेकपूर्वक प्रयोग करो, जब-तक हंसात्मा इस पर्याय में विराजती है, अरहंत की वाणी का अमृत-पान कर भ्रम-रोग का निवारण कर लीजिए। सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने मोक्ष की परिभाषा करते हुए लिखा हैनिरवशेष-निराकृत-कर्म-मल-कलंकस्याशरीरस्यात्मनोऽचिन्त्य स्वाभाविक-ज्ञानादि-गुणमव्याबाधा-सुख-मात्यन्तिकमवस्थान्तरं मोक्ष इति।।
-सर्वार्थसिद्धि, 1/1 अर्थात् जब आत्मा भावकर्म, द्रव्यकर्म-मल-कलंक और शरीर को अपने से सर्वथा जुदा कर देता है, तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादिक गुण-रूप और अव्याबाध सुख-रूप सर्वथा विलक्षण-अवस्था उत्पन्न होती है, उसे आचार्य मोक्ष कहते हैं। _जिनागम में द्रव्यमोक्ष व भावमोक्ष के भेद से मोक्ष दो का कहा गया है :
सव्वस्स कम्मणो जो, खयहेदू अप्पणो हु परिणामो। णेयो स भावमुक्खो, दव्वविमुक्खो य कम्मपुहभावो।।
-द्रव्यसंग्रह, गा. 37 अर्थात् सब कर्मों के नाश का कारण जो आत्मा का परिणाम है, उसको भावमोक्ष जानना चाहिए और कर्मों की जो आत्मा से सर्वथा भिन्नता है, वह द्रव्यमोक्ष है। बन्ध के कारणों का अभाव तथा पूर्व-बद्ध कर्मों की निर्जरा से समस्त कर्मों का सदा के लिए छूट जाना मोक्ष कहलाता है। सिद्धालय में विराजे सिद्ध-भगवन्त स्वात्म-सुख में लीन हैं, अन्य पर-द्रव्य के आलम्बन से शून्य हैं, कहा भी है :
आत्मोपादान-सिद्धं स्वयमतिशयवद्वीतबाधं विशालम्, वृद्धि-हास-व्यपेतं विषय-विरहितं निःप्रतिद्वन्द्व-भावम्। अन्य-द्रव्यानपेक्षं निरुपमममितं शाश्वतं सर्वकालम्, उत्कृष्टानन्तसारं परमसुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातम्।।
-सिद्धभक्ति, श्लो. 7 निज आत्म-रूप उपादान कारण से सिद्ध स्वयं अतिशय युक्त, बाधा से शून्य, विशाल, वृद्धि तथा हास से रहित, विषयों से शून्य प्रतिद्वंद्व अर्थात् प्रतिपक्षता से वर्जित, अन्य