Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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"हाथ कंगन को आरसी क्या?" पाठक स्वयं ही आचार्य-श्री के ग्रंथ को पढ़ने पर उसे आद्योपान्त समाप्त होने तक एक-विशेष प्रकार का स्व-संवेदन, आह्लाद, आनन्द का अनुभव करेंगे। इसमें ताल है, लय है, स्वरों का यथोचित विचरण है, संगीत है- जो मूक होते हुए भी युगों-युगों तक के लिए गायन की ओर मोड़ देता है, जहाँ सम्यक्त्वादि के झरने फूट पड़ते हैं।
आचार्य अकलंकदेव का जीवन-वृत्त
नेमिदत्त के आराधना-कोष में निम्नप्रकार का विवरण मिलता है
मान्यखेट के राजा शुभतुंग थे, जिनके मंत्री का नाम पुरुषोत्तम था। पद्मावती मंत्री की पत्नी थी, जिनके दो पुत्र उत्पन्न हुए- अकलंक और निकलंक। अष्टाह्निका महोत्सव के प्रारम्भ में पुरुषोत्तम मन्त्री सकुटुम्ब रविगुप्त नामक मुनि के दर्शनार्थ गये और वहाँ उन्होंने पुत्रों सहित आठ दिनों का ब्रह्मचर्य-व्रत ग्रहण किया। युवावस्था होने पर पुत्रों ने विवाह करने से इंकार कर दिया और विद्याध्ययन में संलग्न हो गये। उस समय बौद्धधर्म शिखर पर था, अतः वे दोनों महाबोधि विद्यालय में बौद्ध शास्त्रों का अध्ययन करने लगे।
एक दिन गुरु महोदय शिष्यों को सप्तभंगी सिद्धान्त समझा रहे थे, पर पाठ अशुद्ध होने के कारण वे उसे ठीक-से नहीं समझा सके। गुरु के कहीं जाने पर अकलंक ने उस पाठ को शुद्ध कर दिया, जिससे गुरु जी को उन पर उनके जैन होने का सन्देह हो गया। (कहा जाता है कि छात्रों से जिन-प्रतिमा को लाँघने को कहा गया, किन्तु दोनों भाई उस पर धागा डाल कर लाँघ गये। तत्पश्चात् एक भयंकर आवाज बर्तनों को गिराने से उत्पन्न की गई, जिससे भयभीत होकर दोनों भाई णमोकार मंत्र का उच्चारण करने से जैन प्रमाणित हो गये)। अतएव उन दोनों को कारागृह में बंद कर दिया गया, किन्तु किसी उपाय से वे कारागृह से भाग निकले। बौद्धों ने उन्हें पकड़ने हेतु घुड़सवार सैनिक चारों ओर दौड़ाये। अपने प्राणों की रक्षा हेतु दोनों एक सरोवर में छिप गये, किन्तु छोटा भाई बाहर आकर एक धोती साथ लेकर भागा, जिससे अकलंक के प्राणों की रक्षा हो सके। उन्हें घुड़सवारों ने कत्ल कर दिया और अकलंक को अवसर मिला कि वे अब जैनधर्म की प्रभावना करें।
कलिंग देश के रतनसंचयपुर का राजा हिमशीतल था। उसकी रानी मदन सुन्दरी जिनधर्म-भक्त थी। वह जैन रथ सोत्साह निकलवाना चाहती थी, परन्तु बौद्धगुरु तभी रथ निकलवाने की अनुमति देता, जब उसे कोई शास्त्रार्थ में परास्त कर देता। जब अकलंक को यह जानकारी मिली, तो वे राजा हिमशीतल की सभा में गये और बौद्धगुरु को शास्त्रार्थ हेतु चुनौती दी। दोनों में छ: माह तक परदे के भीतर शास्त्रार्थ होता रहा, किन्तु अकलंक को आश्चर्य हुआ और उन्होंने परदे के भीतर का रहस्य जानना चाहा। (उन्हें कुष्माण्डिनी देवी ने स्वप्न में बताया कि परदे की ओट में तारादेवी स्थापित की गयी हैं, जो जवाब देती हैं। यदि किसी प्रश्न को दूसरी बार पूछा जाये, तो वह उत्तर न दे सकेंगी।) निदान के अनुसार अकलंकदेव ने शासन-देवता की कृपा से स्थापित तारादेवी के घट को फाड़कर बौद्धगुरु को परास्त किया, जिसके परिणामतः वहाँ जैन रथ निकाला गया।
राजवलि कथे के अनुसार शास्त्रार्थ 17 दिनों तक चला और शर्त यह थी कि जो हारेगा, उस सम्प्रदाय के सभी लोगों को कोल्हू में पिलवा दिया जाएगा। अकलंक को कुष्माण्डिनी देवी ने स्वप्न