Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
का नैयायिक जीवन भी इसी चुनौती का प्रतिफल है। यही कारण था कि उन्हें अपने नैयायिक जीवन के प्रारंभ में ही अपने भाई निकलंक को गँवाना पड़ा। जिस समय श्री अकलंकदेव जी का उदय होता है, उस समय बौद्ध नैयायिक बुरी तरह से समाज पर हावी थे, राज्य-सत्ता अर्थात् राजसत्ता भी उनके हाथ में थी, सम्पूर्ण विद्या-जगत् पर उन लोगों ने एकाधिपत्य जमा रखा था, ऐसे में जैनधर्म के पास अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए बौद्ध नैयायिकों को चुनौती देने के अतिरिक्त और-कोई दूसरा रास्ता नहीं था।..... पर इसके लिए असंख्य जैन धर्मावलंबियों में भी श्री अकलंक के अतिरिक्त दूसरा कोई और उस विषम परिस्थिति में ललकारने के लिए खड़ा होने का साहस जुटा नहीं पा रहा था या पा सका। यद्यपि जैन-न्याय के सूत्र अकलंक से पहले भी मिलते हैं, परन्तु जैन-न्याय को प्रतिष्ठा वस्तुतः श्री अकलंकदेव ने ही दिलायी। जैन-न्याय के इतिहास को यदि हम ध्यान से देखें, तो उसके तीन युग सामने आते हैं- पहला युग समंतभद्र-युग कहलाता है, दूसरा युग अकलंक-युग और तीसरा प्रभाचन्द्र-युग; पर इन तीनों में अकलंक-युग सबसे महत्त्वपूर्ण इसलिए है, क्योंकि जैन-न्याय के बीज-सूत्र समंतभद्र-युग में होने के बावजूद भी उसकी पृथक् पहचान का काम अकलंक के युग में ही हो सका। इसीलिए अकलंक के न्याय को दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में समान रूप से आदर प्राप्त है; बल्कि कहा तो यह तक जाता है कि अकलंक के तार्किक युद्ध के सम्मुख अन्य नैयायिक प्रमुख रूप से बौद्ध नैयायिक ठहर नहीं सके, इसीलिए "प्रमाणमकलंकस्य" की उक्ति परम्परा में प्रचलित हुई।
डॉ0 दरबारीलाल कोठिया इनके बारे में लिखते हैं कि "आगे जाकर तो इनका वह 'न्यायमार्ग' 'अकलंकन्याय' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। तत्त्वार्थ-वार्तिक, अष्ट-शती, न्याय-विनिश्चय, लघीयस्त्रय और प्रमाण-संग्रह आदि इनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं। ये प्रायः सभी दार्शनिक कृतियाँ हैं और तत्त्वार्थ-वार्तिक-भाष्य को छोड़कर सभी गूढ़ एवं दुरवगाह हैं। अनन्तवीर्यादि टीकाकारों ने इनके पदों की व्याख्या करने में अपने को असमर्थ बतलाया है। वस्तुतः अकलंकदेव का वाङ्मय अपनी स्वाभाविक जटिलता के कारण विद्वानों के लिए आज भी दुर्गम और दुर्बोध बना हुआ है। जबकि उन पर टीकाएँ भी उपलब्ध हैं।" आचार्य श्री विशुद्ध सागर जी ने इस जटिलता को खासकर स्वरूप-संबोधन के संबंध में परिशीलन में दूर करने की कोशिश की है और इसमें वे भरसक सफल भी हुए हैं।