Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
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आन्तरिक पुनर्गठन-पद्धति (Internal Reconstruction Method) और जहाँ पर इन दोनों से भी काम न चले, वहाँ ऐतिहासिक पुनर्गठन-पद्धति (Historical Reconstruction Method) का इस्तेमाल कर मूल-पाठ को आलोचित रूप से संपादित करता, पर विभिन्न आयोजकों के शीघ्र प्रकाशन के दबाव के कारण वह काम नहीं हो सका, जिसका मुझे खेद है। यद्यपि डॉ. सुदीप जी ने कई प्रतियों व पं. केशवर्य्य की कन्नड़ टीका के अनुसार मूल-पाठ संपादित करने का प्रयास किया है, पर वह पर्याप्त नहीं है, कारण कि अनेकत्र संस्कृत की पहली टीका में जो पाठ मिलता है व जो व्याख्या मिलती है, उस व्याख्या की तार्किकता को नकारने के आधार डॉ. सुदीप जी पाठ संपादित करते समय नहीं दे सके हैं तथा जो पाठ निर्धारित किया, उसके निर्धारण के भी तार्किक आधार प्रयास करने पर भी दिखते नहीं हैं। यहाँ मैंने संस्कृत की प्राचीनतम अज्ञातकर्तृक टीका को आधार के रूप में रखा और जहाँ पाठ-भेद में किसी पाठ को मानने में तार्किक आधार संस्कृत की टीका में मिल गया, तो उसे मान लिया; इसके अलावा जहाँ संस्कृत-टीका में वह आधार नहीं दिखा, वहाँ अन्य दोनों पाठों में से साँचे की समरूपता के सिद्धान्त (Pattern Congruity) व तुलनात्मक आधार पर पाठ को आँकते हुए उसका रूप निर्धारित किया है, इतना-भर काम अभी इस हड़बड़ी में हो सका है। जो पाठ अभी हमने स्वीकार किया है, उसकी तार्किकता के आधार भी तात्कालिक रूप में मैंने पाद-टिप्पण में दिये हैं, पर वे व्यक्तिशः मेरे द्वारा ही दिये गए ही हैं तथा वे तात्कालिक ही हैं, क्योंकि उनके निर्णय में हस्तलिखित पांडुलिपियों को सँजोकर नहीं जोड़ा जा सका है; यदि कभी अवसर मिला, तो विभिन्न पांडुलिपियों के आधार पर फिर से उसके मूल-पाठ को संपादित करूँगा।
स्वरूप-संबोधन का बीसवाँ श्लोक दो प्रकाशित प्रतियों में नहीं है। केवल एक प्रकाशित प्रति में ही वह दिया गया है। विषय-वस्तु व उस श्लोक की प्रस्तुति के ढंग पर जब हम विचार करते हैं, तो लगता है कि वह श्लोक स्वरूप-संबोधन का अभिन्न अंग अवश्य रहा होगा। जो कालान्तर में लिप्यंतरकार की गड़बड़ी के कारण किसी स्तर पर छूट गया । यदि उस श्लोक को हटा देते हैं, तो स्वरूप-संबोधन पंचविंशतिकी की उक्ति भी सटीक नहीं बैठती, क्योंकि जो 26वाँ श्लोक है, वह स्वरूप-संबोधन के मूल-कथ्य का प्रस्तोता न होकर उपसंहारात्मक है। अतः 26वाँ श्लोक मूल रचनाकार का जरूर है, तो-भी वह स्वरूप-संबोधन की पंचविंशतिका का अंग वैचारिक रूप से नहीं कहा जा सकता है। इसीलिए परम्परा में उसे मूल का अंग मानने की बात सम्भवतया नहीं रही होगी।