Book Title: Swarup Sambodhan Parishilan
Author(s): Vishuddhasagar Acharya and Others
Publisher: Mahavir Digambar Jain Parmarthik Samstha
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स्वरूप-संबोधन-परिशीलन
जो परोक्ष पदार्थ हैं, उनकी सिद्धि कैसे हो?.... उस सिद्धि में जिन तर्क/उपायों को या तार्किक उपायों को इस्तेमाल किया जाता है, उन तार्किक उपायों के समवेत रूप को हमारे यहाँ न्याय-शास्त्र कहा गया। इसीलिए न्यायविनिश्चय में कहा गया है कि-"नीयते अनेन इति हि नीति-क्रिया-करणं न्यायमुच्यते" अर्थात् जिसके द्वारा निश्चय किया जाय, -ऐसी नीति व क्रिया का करना न्याय कहलाता है। तर्क व युक्ति के द्वारा परोक्ष पदार्थों की सिद्धि व निर्णय करने के लिए वस्तुतः हमारे यहाँ न्याय-शास्त्र का उद्गम हुआ। विभिन्न भारतीय दर्शनों में वैशेषिक दर्शन भी महत्त्वपूर्ण है। वैशेषिक दर्शन में जिन तत्त्वों को मान्य माना गया, उन तत्त्वों की युक्ति-पूर्वक सिद्धि को वस्तुतः न्याय-शास्त्र कहा गया, जो कालान्तर में नैयायिक दर्शन के रूप में प्रख्यापित हुआ।
'न्याय' शब्द की व्युत्पत्ति में भी जाएँ, तो 'नि' उपसर्ग पूर्वक 'इण्' गतौ धातु से या गत्यर्थक 'इण' धातु से घञ् प्रत्यय होने पर 'न्याय' शब्द बनता है, जिससे भी अर्थ निकलता है कि जिससे निःशेष रूप में वस्तु-तत्त्व का अर्थ अवगमित हो जाय, उस उपाय-शास्त्र का नाम न्याय है अर्थात् उसके बाद वस्तु-तत्त्व की सिद्धि के लिए और-कुछ किञ्चित्-भी गति की जरूरत न रह जाय, ऐसी स्थिति में पहुँचाने का काम काक-तालीय न्याय का है अर्थात् इन लोक-प्रसिद्ध न्यायों के माध्यम से लोक में अनुभव के आधार पर कुछ नियम-सूत्र बनाये गये, कालांतर में उन्हें भी न्याय कहा जाने लगा। वस्तुतः इन न्यायों का इस्तेमाल पूर्व-मीमांसा-शास्त्र में ब्राह्मण-वाक्यों के अर्थ के निर्धारण के लिए बहुत खोजकर किया जाता रहा है, इसीलिए प्राचीन काल में मीमांसा के लिए भी न्याय शब्द का प्रयोग होता रहा है। पाश्चात्य विद्वानों में बुलर ने और भारतीय विद्वानों में डॉ. धर्मेन्द्र नाथ शास्त्री ने स्पष्टतः लिखा है कि "आपस्तम्बसूत्र में "न्याय" शब्द का प्रयोग पूर्व-मीमांसा के अर्थ में ही हुआ है, इसलिए उत्तरकाल में भी पूर्व-मीमांसा के लिए ही न्याय शब्द का प्रयोग होता रहा है।"
न्याय-विद्या के लिए भी प्राचीन काल से ही न्याय शब्द का प्रयोग होता रहा है, यह बात न्यायवृत्तिकार विश्वनाथ ने श्रुति, स्मृति तथा पुराण के आधार पर कही है (1.1.1)। आप "न्यायसूत्र' के नाम पर भी विचार करें, तो-भी यह बात स्पष्ट होती है कि न्याय-सूत्र के प्रणेता गौतम के समय में भी 'न्याय' शब्द न्याय-विद्या के लिए प्रसिद्ध हो गया था, इसीलिए उन्होंने अपने ग्रंथ का नाम न्याय-सूत्र रखा। न्याय-सूत्र-भाष्य (1.1.1) में उल्लिखित है- "प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः" भाव यह है