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पुरातनप्रबन्धसंग्रह की ऐतिहासिक मूल्यवत्ता : 13 ऐतिहासिक घटनाओं के ये प्रामाणिक स्रोत हैं। हमें विवेक एवं धैर्य से कुछ कल्पित वर्णनों को ऐतिहासिक घटनाओं से अलग करना है।
यहाँ इन प्रबन्धों के रचयिताओं/लेखकों एवं उनके रचनाकाल का प्रश्न विचारणीय है। प्रबन्धों के मूल लेखकों को खोज पाना अत्यन्त दुर्लभ है। आज हमारे पास ऐसा कोई स्रोत नहीं है कि हम उनके मूल लेखकों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकें। उदाहरणार्थ - प्रबन्धचिन्तामणि एवं प्रबन्धकोश के लेखक के रूप में क्रमश: मेरुतुंग एवं राजशेखर प्रसिद्ध हैं परन्तु वास्तव में ये इनमें संग्रहीत सभी प्रबन्धों के मूल लेखक नहीं हो सकते। प्रबन्धचिन्तामणि में ११ प्रबन्ध हैं तथा प्रबन्धकोश में २४ (इसीलिए इसका एक नाम चतुर्विंशतिप्रबन्ध भी है) इस तथ्य के सबसे बड़े साक्ष्य वे प्रबन्ध हैं जो दोनों ग्रन्थों में समान रूप से प्राप्त होते हैं। अपने ग्रन्थ को पूरा करने के लिए राजशेखर ने पूर्ववर्ती प्रबन्धों से आधे से ज्यादा सामग्री ली है। इनकी मौलिक रचना ३-४ प्रबन्धों तक ही सीमित है। इससे सिद्ध होता है कि इस प्रकार के प्रबन्धों के मूल लेखक इन लेखकों (मेरुतुंग एवं राजशेखर) से भिन्न रहे होंगे, परन्तु उनके नाम अज्ञात हैं। जहाँ तक 'पुरातनप्रबन्धसंग्रह' का प्रश्न है, इसकी भी ठीक यही स्थिति है। सन् १९३५ में प्रसिद्ध आचार्य जिनविजयजी को पाटन भण्डार से यह प्रति प्राप्त हुई थी। उन्होंने इसे एकत्र कर प्रकाशित किया और आज यह ग्रन्थ उन्हीं के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार मेरुतुंग एवं आचार्य राजशेखर ने अपने समय में वर्तमान पूर्वरचित प्रबन्धों को संग्रहीत किया- कुछ प्रबन्धों की स्वयं रचना की। इस प्रकार सम्पूर्ण ग्रन्थ उनके नाम से प्रसिद्ध हो गया। जहाँ तक इनके रचनाकाल का प्रश्न है, उपर्युक्त पंक्तियों में दर्शाया गया है कि ये प्रबन्ध मुख्यतः १३वीं शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर १६वीं-१७वीं शताब्दी के अन्त तक लिखे गये। कालान्तर में इनका सम्पादन एवं संशोधन होता रहा। आचार्य जिनविजयजी ने इसका अंतिम सम्पादन-काल १५वीं शती माना है। मुनि जी इस प्रति की सामग्री तथा आचार्य जिनभद्रकृत प्रबन्धावली की विषय-वस्तु को लेकर इसे पुरातनप्रबन्धसंग्रह नाम दिया है। उनका यह नामकरण वास्तविक रूप से सार्थक है।
पुरातनप्रबन्धसंग्रह छोटे-छोटे प्रबन्धों का एक संग्रह है। स्पष्ट है, इन संग्रहों का लेखक न तो एक है और न इनका रचनाकाल एक है। आचार्य जिनविजयजी को इस प्रति के अन्तिम पृष्ठ से एक श्लोक प्राप्त हुआ जिसका आशय यह था कि संवत् १२९० (१२३३ई.) में जिनभद्र नामक एक आचार्य ने इन प्रबन्धों का संग्रह किया था। इस संग्रह का पावन उद्देश्य वस्तुपाल के पुत्र जयन्तसिंह को शिक्षा प्रदान करना था