Book Title: Sramana 2015 10
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 20
________________ पुरातनप्रबन्धसंग्रह की ऐतिहासिक मूल्यवत्ता डॉ० अरुण प्रताप सिंह विशाल भारतीय साहित्य की संरचना में जैन धर्म का अप्रतिम योगदान है। वैदिक एवं बौद्ध परम्परा के समान जैन परम्परा के आचार्यों ने ईसापूर्व की शताब्दियों से लेकर आधुनिक काल तक निरन्तर अपनी लेखनी के द्वारा उसे समृद्ध किया है। साहित्य समाज का दर्पण होता है और जैनाचार्यों ने निस्सन्देह अंग-उपांग, प्रकीर्णकं, छेद, मूल, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, कथा एवं काव्य साहित्य द्वारा तत्कालीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का जीवन्त प्रदर्शन किया है। प्रबन्ध साहित्य कथा एवं काव्य के अन्तर्गत आते हैं और इन क्षेत्रों में भी जैनाचार्यों का योगदान प्रशंसनीय है। प्रबन्ध अर्ध ऐतिहासिक वृत्तान्त होते हैं जिनमें समसामयिक घटनाओं के साथ-साथ थोड़ी कल्पनाएँ भी निहित होती हैं। परम्परा में श्रद्धा भाव रखने के कारण लेखक उसमें अलौकिकताओं का समावेश कर देता है। लेखक का यह कृत्य कोई अक्षम्य अपराध नहीं है क्योंकि वह इतिहास को केवल तिथि एवं घटनाओं का शुष्क मिश्रण ही नहीं मानता अपितु वह उसे साहित्य के अन्तर्गत रखना चाहता है। हिन्दू पुराण भी, जो जैन प्रबन्धों के थोड़ा पहले लिखे गये थे, कुछ इसी प्रकार के हैं। प्रारम्भ में अधिकांश पाश्चात्य एवं कुछ भारतीय इतिहासकारों ने उन्हें त्याज्य समझकर छोड़ दिया था तथा कल्पनाओं में विचरण करने वाला साहित्य माना था। परन्तु निरन्तर शोध की प्रवृत्ति के कारण पुराणों की ऐतिहासिक मूल्यवत्ता का बोध हुआ और अब तो द्वितीय-तृतीय शताब्दी ईस्वी से लेकर छठी-सातवीं शताब्दी ईस्वी तक अनेक ऐतिहासिक घटनाओं की पुष्टि इन्हीं पौराणिक ग्रन्थों से होती है। प्रबन्ध साहित्य के साथ भी ठीक यही स्थिति दिखायी देती है। अपने ग्रन्थों 'प्रबन्धचिन्तामणि' एवं 'प्रबन्धकोश में क्रमश: आचार्य मेरुतुंग एवं आचार्य राजशेखर ने प्रबन्धों को लेकर इतिहास की एक स्पष्ट व्याख्या की है। आचार्य मेरुतुंग ने इतिहास को पूर्व-परम्परा, स्त्रोत-ग्रन्थ तथा यथाश्रुति का मिला-जुला रूप बताया है। उन्होंने प्रबन्धचिन्तामणि को तिथियों एवं कालक्रम से गुम्फित कर दिया है। इससे सिद्ध होता है कि उन्हें इतिहास की सच्ची पकड़ थी। वह स्पष्ट कहते हैं कि उन्होंने वह वृत्तान्त जैसा घटा था वैसा ही निवेदित किया है। यह इतिहास की वैज्ञानिक परिभाषा थी। इसी प्रकार आचार्य राजशेखर ने प्रबन्ध साहित्य को इतिहास लेखन की एक नई विधा के रूप में प्रस्तुत किया तथा कल्पनाओं एवं अलौकिकताओं को काफी हद तक कम किया। पहली बार राजशेखर ने चरित-ग्रन्थों एवं प्रबन्ध ग्रन्थों के अन्तर को परिभाषित किया। इनके अनुसार ऋषभवर्धमान तीर्थंकरों, चक्रवर्ती नरेशों एवं आर्यरक्षित के काल तक (प्रथम शताब्दी

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