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40 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015 १०. जैन परम्परा में दश धर्म : यह व्याख्यान कार्यशाला निदेशक डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय द्वारा दिया गया। डॉ० पाण्डेय ने अपने व्याख्यान में धर्म के लक्षणों की व्याख्या करते हुए जैन धर्म में प्रतिपादित दश धर्मों- क्षान्ति, मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्य आदि के लक्षण, स्वरूप एवं महत्त्व पर विशद् प्रकाश डाला। ११. जैन श्रमणाचार : यह व्याख्यान प्रो० कमलेश कुमार जैन द्वारा दिया गया। प्रो० जैन ने बताया कि जैन धर्म में श्रमणों के लिए जिन नियमों का विधान है, वे श्रमणाचार कहलाते हैं। इसके अन्तर्गत प्रो० जैन ने गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, परिषह-जय, धर्म एवं पञ्चमहाव्रतों इत्यादि का विस्तृत उल्लेख किया। इस क्रम में उन्होंने चार कषायों (क्रोध, मान, माया और लोभ) का विवेचन करते हुए जैन विचारणा में प्रतिपादित श्रमणाचार की, मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक आधार पर प्रासंगिकता एवं उपादेयता को स्पष्ट किया। १२. षड्द्रव्य, पञ्चास्तिकाय एवं तत्त्व विचार : यह व्याख्यान डॉ० राहुल कुमार सिंह द्वारा दिया गया। डॉ. सिंह ने अपने व्याख्यान में जैन दर्शन में प्रतिपादित जीव-अजीव द्रव्यों का विवेचन करते हुए अजीव द्रव्य के अन्तर्गत धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल द्रव्यों का सविस्तार उल्लेख किया। पुनः पञ्चविध अजीव द्रव्यों के द्विविध विभाजनों (रूपी-अरूपी एवं अस्तिकायअनस्तिकाय) का भी सविस्तार उल्लेख किया। डॉ. सिंह ने द्रव्य व्यवस्था के पश्चात् जीव को आस्रव और उसके फल बन्धन का ज्ञान आवश्यक बताते हुए जैन मतानुसार नौ द्रव्यों (जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष) का भी विवेचन किया। १३. नय एवं निक्षेप : यह व्याख्यान भी डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय द्वारा दिया गया। डॉ० पाण्डेय ने ज्ञाता या वक्ता के अभिप्राय को नय की संज्ञा देते हुए उसे प्रमाण द्वारा गृहीत वस्तु का आंशिक ज्ञान बताया जो वक्ता के कथन की विवक्षा पर आधारित है। उन्होंने प्रमाण एवं नय के अन्तर को स्पष्ट करते हए नय के विविध भेद-प्रभेदों के साथ सात नयों का सोदाहरण विवेचन किया। पुन: उन्होंने निक्षेप को जैन भाषा दर्शन का अनूठा सिद्धान्त बताते हुए नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव रूप से चतुर्विध निक्षेपों का विवेचन किया। १४. स्याद्वाद एवं सप्तभंगीनय : यह व्याख्यान भी डॉ० राहुल कुमार सिंह द्वारा दिया गया। जैन विचारणा के अनेकान्तवाद सिद्धान्त की भाषायी अभिव्यक्ति रूप स्याद्वाद नामक सिद्धान्त का विवेचन करते हुए डॉ. सिंह ने इसके उद्भव, विकास