Book Title: Sramana 2015 10
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 123
________________ जं च इमं अच्वंतं वयणं सब्भाव- गब्भिणं भद्द ! | तं चैव मज्झ मणि-सय सहस्स- लक्खाण अब्भहियं ।। १४६।। संस्कृत छाया : - एतद् निशम्य वचनं कुशलो भणितिषु भणति धनदेवः । भो राजसुत! यदेतं त्वया सह दर्शनं मम । । १४५ । । यच्चेदमत्यन्तं वचनं सद्भावगर्भितं भद्र! | तच्चैव मम मणि- शत- सहस्र- लक्षेभ्योऽभ्यधिकम् ।। १४६ ।। युग्मम्।। गुजराती अनुवाद : आ सांभणी ने बोलवा मां कुशळ सेवा धनदेवे कह्युं, हे राजपुत्र, जे मने तमारुं दर्शन थयुं, एज अत्यन्त भावभीना वचन, वाणी ते मारे माटे हजारो लाखों मणीओ करतां पण वधु छे । हिन्दी अनुवाद : ऐसा सुनकर बोलने में अत्यन्त कुशल धनदेव ने कहा, 'हे राजपुत्र, हमें जो तुम्हारा दर्शन हुआ और तुम्हारे अत्यन्त भावभीने वचन सुने वह मेरे लिए हजारों, लाखों मणियों से भी अधिक है। गाहा : अह भणइ सुप्पइट्ठो निसम्म धणदेव- भासियं वयणं । अत्थि य एवं धणदेव ! किंतु अहयंपि एयम्मि ।। १४७ । । गहिए दिव्व- मणिम्मी तुमए मन्ने कयत्थमप्पाणं । ता भो ! मह धिइ-हेउं किज्जउ मणि- गहणमवियप्पं । । १४८ । संस्कृत छाया : अथ भणति सुप्रतिष्ठो निशम्य धनदेवभाषितं वचनम् । अस्ति चैतद् धनदेव ! किन्तु अहमप्येतस्मिन् ।। १४७ । । गृहीते दिव्यमणौ त्वया मन्ये कृतार्थमात्मानम् । तस्माद् भो ! मम धृतिहेतुं क्रियतां मणिग्रहणमविकल्पम् ।। १४८ ।। युग्मम् ।।

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