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42 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015 प्रमाणशास्त्र को प्रत्यक्ष और अनुमान द्विविध बताया। इस सन्दर्भ में स्वलक्षण एवं सामान्य लक्षण का विवेचन करते हुए स्वलक्षण को प्रत्यक्ष का तथा सामान्य लक्षण को अनुमान का विषय बताया। उन्होंने स्वलक्षण को बौद्ध दर्शन का एकमात्र प्रमाण बताते हुए अनुमान को केवल व्यवहार के लिए आवश्यक बताया। इस क्रम में उन्होंने दिङ्नाग, धर्मकीर्ति इत्यादि दार्शनिकों के मतों का विस्तृत विवेचन किया। २०. चार आर्यसत्य : यह व्याख्यान भी प्रो० अभिमन्यु सिंह द्वारा दिया गया। प्रो० सिंह ने दुःख से निवृत्ति को बौद्ध दर्शन का लक्ष्य बताते हुए कहा कि दुःख संसार का सामान्य लक्षण है। दुःख, दु:ख का कारण, इसका निराकरण और इसके मिराकरण का मार्ग, यही बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य हैं। इस क्रम में उन्होंने अष्टांगिक मार्ग (सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् आजीव, सम्यक् स्मृति एवं सम्यक् समाधि) का विशद् विवेचन किया। २१. जैन कला एवं प्रतिमा विज्ञान : यह व्याख्यान प्रोफेसर मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, एमिरटस प्रोफेसर, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा दिया गया। प्रो० तिवारी ने अपने व्याख्यान में तीर्थंकरों की ध्यान एवं कायोत्सर्ग मुद्रा के वैशिष्ट्य का उल्लेख करते हुए उनके लांछनों के पर्यावरणीय महत्त्व को भी रेखांकित किया। इस क्रम में उन्होंने खजुराहो के मन्दिर, दिलवाड़ा मन्दिर, चन्द्रप्रभ की कुषाणकालीन मूर्ति, देवगढ़ के ऋषभनाथ इत्यादि मूर्तियों के काल, स्थान एवं उनकी विशेषताओं का विशद् विवेचन किया। २२. अपोहवाद : यह व्याख्यान डॉ० जयन्त उपाध्याय, दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी का था। डॉ० उपाध्याय ने बताया कि बौद्ध दर्शन के अनुसार किसी भी वस्तु के विषय में ज्ञान का कारण उस वस्तु का विशिष्ट धर्म है, न कि जाति। यह विशिष्ट धर्म ही 'अपोह' नाम से जाना जाता है। उन्होंने अपोह की व्युत्पत्ति, परिभाषा एवं महत्त्व को बताते हुए बौद्ध मतानुसार धर्म एवं जाति का भी विस्तृत उल्लेख किया। २३. जैन-बौद्ध भिक्षुणी संघ : यह व्याख्यान, डॉ० अरुण प्रताप सिंह, अध्यक्ष, प्राचीन इतिहास विभाग, श्री बजरंग स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिकन्दरपुर, बलिया द्वारा दिया गया। डॉ. सिंह ने जैन एवं बौद्ध दोनों ही परम्पराओं के चतुर्विध संघ (श्रमण, श्रमणी, श्रावक (उपासक) एवं श्राविका (उपासिका)) का विवेचन करते हुए साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर जैन एवं बौद्ध दोनों ही परम्पराओं के भिक्षुणियों के आचार, भिक्षु-भिक्षुणियों के पारस्परिक सम्बन्ध, उनकी सामाजिक स्थिति तथा दोनों परम्पराओं की भिक्षुणियों का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया।