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44 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015
सहित वर्तमान में आचार्य महाश्रमण एवं आचार्य शिवमुनि जी तक की परम्परा पर
प्रकाश डाला।
२८. पिटक साहित्य : यह व्याख्यान प्रो० बिमलेन्द्र कुमार, पूर्व अध्यक्ष, पालि एवं बौद्ध अध्ययन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा दिया गया। प्रो० ० कुमार ने पिटक की व्याख्या करते हुए कहा कि त्रिपिटक भगवान बुद्ध द्वारा बुद्धत्व प्राप्त करने के समय से महापरिनिर्वाण तक दिये गये प्रवचनों का संग्रह है। उन्होंने विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्म पिटक के सभी विभागों, उनकी विषयवस्तु एवं रचनाकाल का विशद् विवेचन प्रस्तुत किया।
२९. आजीवक सम्प्रदाय : यह व्याख्यान प्रो० आनन्द मिश्र, दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा दिया गया। प्रो० मिश्र ने श्रमण परम्परा के अन्तर्गत आजीवक सम्प्रदाय के महत्त्व एवं उसकी विशेषताओं का वर्णन करते हुए इसके अन्तर्गत अजित केशकम्बल, मक्खली गोशाल, भिक्षु पूर्णकाश्यप, प्रक्रुद्ध कात्यायन, संजय बेलट्ठिपुत्त एवं निग्गंठनाथपुत्त के सिद्धान्तों एवं जीवन परिचय पर विस्तृत प्रकाश डाला।
३०. जैन चित्रकला : यह व्याख्यान ज्ञान प्रवाह, वाराणसी की निदेशिका प्रो० कमल गिरि का था । प्रो० गिरि ने जैन चित्रकला की सामान्य विशेषताओं को रेखांकित करते हुए सर्वप्राचीन जैन चित्रकला के रूप में एलोरा आदि गुफाओं की चित्रकला के साथ-साथ पटचित्र, भित्तिचित्र आदि का भी सविस्तार उल्लेख किया।
३१. जैन अभिलेख : यह व्याख्यान संस्थान के पूर्व निदेशक प्रोफेसर महेश्वरी प्रसाद जी द्वारा दिया गया। उन्होंने जैन अभिलेखों को जैन धर्म एवं संस्कृति की ऐतिहासिकता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बताते हुए नागार्जुन एवं बराबर की गुफाओं से प्राप्त अभिलेखों के साथ-साथ खारवेल, माथुरी, गुप्तकाल, राजस्थान एवं मध्यकाल के जैन अभिलेखों का विस्तृत विवेचन किया।
३२. इतिहास के जैन स्रोत : यह व्याख्यान डॉ० उमेश चन्द्र सिंह, इतिहास विभाग, तिब्बती उच्च अध्ययन केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सारनाथ, वाराणसी द्वारा दिया गया। डॉ० सिंह ने अपने व्याख्यान में भारतीय एवं पाश्चात्य ऐतिहासिक परम्परा की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए दो प्रकार के जैन ऐतिहासिक स्रोतोंसाहित्यिक एवं अभिलेखीय स्रोतों पर विशद् प्रकाश डाला।
३३. जैन धर्म-दर्शन में अहिंसा : यह व्याख्यान कार्यशाला संयोजक डॉ० श्रीनेत्र पाण्डेय द्वारा दिया गया। उन्होंने बाह्य एवं आन्तरिक व्यापार की दृष्टि से अहिंसा को व्याख्यायित करते हुए इसे मनोवैज्ञानिक तथ्य के रूप में प्रस्तुत किया। डॉ० पाण्डेय