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38 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015 परम्परा में धर्म-प्रचारक का राग-द्वेष से मुक्त होना अनिवार्य है और श्रमण परम्परा में भी जिन या अर्हत् राग-द्वेष से मुक्त होते हैं। इसी प्रकार अवतारवाद भी दोनों परम्पराओं में विद्यमान है। अत: भारतीय संस्कृति को सम्यक् रूप से जानने के लिए श्रमण संस्कृति को जानना आवश्यक है। २. जैन कर्म सिद्धान्त : यह व्याख्यान प्रो० कमलेश कुमार जैन, पूर्व अध्यक्ष, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा दिया गया। प्रो० जैन ने आठ प्रकार की कर्म प्रकृतियों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय) का उल्लेख करते हुए जीव से इनके बन्ध के कारण एवं इनसे मुक्ति के उपायों का विशद् विवेचन किया। इसी क्रम में प्रो० जैन ने द्विविध कर्मों (घाती एवं अघाती), द्विविध उपयोग (ज्ञानोपयोग एवं दर्शनोपयोग) तथा द्विविध जीवों भव्य एवं अभव्य का भी उल्लेख किया। ३. जैन सम्प्रदाय : यह व्याख्यान मानव सेवा संस्कृति शोध संस्थान, वाराणसी के निदेशक डॉ० झिनकू यादव द्वारा दिया गया। डॉ० यादव ने अपने व्याख्यान में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के विभाजन की परिस्थिति एवं कारणों का उल्लेख करते हुए ८४ चैत्यवासी मुनियों, उनकी परम्परा एवं संस्कृति का सविस्तार विवेचन करते हुए ६३ शलाकापुरुषों (२४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव एवं ९ प्रतिवासुदेव) का भी उल्लेख किया। इसी क्रम में डॉ० यादव ने श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्प्रदाय के स्थानकवासी, मूर्तिपूजक, तेरापंथी, तारणपंथी, बीसपंथी इत्यादि उपसम्प्रदायों का भी उल्लेख किया। ४. जैन सम्प्रदाय के विकास में राजकीय संरक्षण का योगदान : यह व्याख्यान प्रो० सीताराम दूबे, पूर्व विभागाध्यक्ष, प्रा०भा०३० सं० एवं पुरातत्त्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा दिया गया। प्रो० दूबे ने विभिन्न साहित्यिक अभिलेखों एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आधार पर जैन धर्म को प्राप्त राजकीय संरक्षण का उल्लेख करते हुए बिम्बिसार, अजातशत्रु, चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक के पुत्र सम्प्रति, खारवेल, रामगुप्त, गुजरात के चौलुक्य वंशीय शासक जयसिंह, इसके अतिरिक्त पूर्वमध्यकाल में प्रतिहार नरेश वत्सराज नागभट्ट द्वारा जैन धर्म के विकास में दिये गये योगदान का सविस्तार उल्लेख किया। ५. जैनागम साहित्य : यह व्याख्यान कार्यशाला के निदेशक एवं संस्थान के संयुक्त निदेशक डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय द्वारा दिया गया। डॉ० पाण्डेय ने बताया कि आगम अर्थप्रधान होते हैं जो अर्हतों द्वारा प्ररूपित हैं। इस सम्बन्ध में उन्होंने आचारांग समवायांग आदि अंगों तथा औपपातिक, राजप्रश्नीय, प्रज्ञापना आदि उपागों और