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पार्श्वनाथ विद्यापीठ समाचार : 37 प्रसाद दूबे थे। उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली के राष्ट्रीय प्रोफेसर एवं पार्श्वनाथ विद्यापीठ के पूर्व निदेशक प्रो० महेश्वरी प्रसाद ने किया। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि डी०एल०डब्ल्यू०, वाराणसी के पूर्व महाप्रबन्धक श्री आर०के०जैन तथा सारस्वत अतिथि वाराणसी के प्रसिद्ध उद्योगपति एवं समाजसेवी श्री धनपतराज भंसाली थे। मुख्य अतिथि पद से बोलते हुये प्रो० यदुनाथ प्रसाद दूबे ने कहा कि भारतीय संस्कृति श्रमण एवं ब्राह्मण संस्कृति का समन्वित रूप है। अतएव श्रमण संस्कृति को जाने बिना भारतीय संस्कृति को सम्पूर्ण रूप से नहीं जाना जा सकता। अध्यक्षता करते हुए प्रो० महेश्वरी प्रसाद ने कहा कि श्रमण एवं ब्राह्मण संस्कृति भारतीय संस्कृति की दो समानान्तर धाराएँ हैं, दोनों में वस्तुत: कोई विरोध नहीं है। विशिष्ट अतिथि श्री आर०के० जैन ने कहा कि श्रमण एवं ब्राह्मण दोनों परम्पराओं का उद्देश्य मानवता की सेवा के साथ-साथ जीवन के चरमलक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति ही है। सारस्वत अतिथि श्री धनपतराज भंसाली ने कहा कि जैन धर्म दर्शन द्वारा प्रतिपादित ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्' सर्वोच्च सामाजिक मूल्य है जिसके आधार पर समतामूलक समाज की स्थापना सम्भव है। इस अवसर पर कार्यशाला के निदेशक डॉ० श्री प्रकाश पाण्डेय ने कार्यशाला के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहा कि जैन एवं बौद्ध विद्या के विविध आयामों को हृदयंगम कर नवीन शोद्यार्थियों के लिए शोध के नये क्षेत्र उद्घाटित करना तथा व्यावहारिक स्तर पर समाज को सदाचरण की ओर प्रवृत्त करना ही इस कार्यशाला का उद्देश्य है। कार्यशाला संयोजक डॉ० श्रीनेत्र पाण्डेय ने कार्यशाला के पाठ्यक्रम एवं नियमों से प्रतिभागियों को अवगत कराया तथा कार्यक्रम का संचालन डॉ० राहुल कुमार सिंह द्वारा किया गया। इस कार्यशाला में २७ नवम्बर से ८ दिसम्बर २०१५ तक ३३ विभिन्न विषयों पर कुल ३७ व्याख्यान हुए, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है१. भारतीय दर्शन एवं संस्कृति की विशेषताएं : श्रमण परम्परा के विशेष सन्दर्भ में यह व्याख्यान प्रो० अरविन्द कुमार राय, पूर्व विभागाध्यक्ष, दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी द्वारा दिया गया। प्रो० राय ने बताया कि ब्राह्मण एवं श्रमण दोनों ही परम्पराएँ तप प्रधान हैं। तप भारतीय संस्कृति का प्राण है। जैन परम्परा में तप से ही निर्जरा होती है जबकि ब्राह्मण परम्परा में कामनाओं की पूर्ति के लिए भी तप का विधान है। प्रो० राय ने कहा कि ब्राह्मण