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20 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015 आसुर- इसमें वर वधू को उसके पिता अथवा पैतृक बान्धवों से खरीद लेता है। गान्धर्व- इसमें युवक और युवती का पारस्परक प्रेम ही मुख्य है। इसमें न किसी रीति-रस्म की आवश्यकता होती है और न सगे-सम्बन्धियों की अनुमति। राक्षस- इसमें दुलहिन के सम्बन्धियों को युद्ध में परास्त कर कन्या को बलात् उठाकर ले जाया जाता है। पैशाच- इसमें किसी सोई हुई, प्रमत्त या पागल कन्या का उसकी स्वीकृति के बिना उसका कौमारहरण किया जाता है। यह निम्न कोटि का विवाह है।
सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा दंहो यत्रोपगच्छति।
स पापिष्ठो विवाहानांपैशाचश्चाष्टमोऽधमः।।" दैव, शास्त्र और गुरु को नमस्कार कर तथा अपने भाई-बन्धुओं की साक्षीपूर्वक जिस कन्या के साथ विवाह किया जाता है वह विवाहिता स्त्री कहलाती है। ऐसी विवाहिता स्त्री के अतिरिक्त अन्य सब पत्नियाँ दासी कहलाती हैं। उनमें जो विवाहित पत्नी है उसके दो भेद हैं और उन दोनों के लक्षण भी अलग-अलग हैं। कर्मभूमि में रूढ़ि से चली आई जो अलग-अलग जातियाँ हैं, उनमें से अपनी जाति की कन्या के साथ विवाह करना और अन्य जाति की कन्या के साथ विवाह करना। इस प्रकार अपनी जाति की विवाहिता पत्नी और अन्य जाति की विवाहित पत्नी के भेद से पत्नियाँ दो प्रकार की हैं। अपनी जाति की जिस कन्या के साथ विवाह किया जाता है, वह धर्मपत्नी कहलाती है। ऐसी धर्मपत्नी ही धर्मकार्यों में साथ रह सकती है। पिता की साक्षीपूर्वक अन्य जाति की कन्या से जो विवाह किया जाता है वह भोगपत्नी कहलाती है। क्योंकि वह केवल भोग का ही साधन है। इस प्रकार अपनी जाति और पर जाति के भेद से स्त्रियाँ दो प्रकार की हैं तथा जिसके साथ विवाह नहीं हुआ है ऐसी स्त्री दासी या चेरी कहलाती है। ऐसी दासी केवल भोगाभिलाषिणी होती है। धर्म के जानने वाले पुरुषों को भोग पत्नी का पूर्ण रूप से त्याग कर देना चाहिये। यद्यपि विवाहिता होने से वह ग्रहण करने योग्य है तथापि धर्मपत्नी से वह सर्वथा भिन्न है। इसलिये उसके सेवन करने में दोष ही है। दासी के साथ विषय सेवन करने से वज्रलेप के समान पापों का संचय होता है। यदि पुण्यार्जन करने में भावों की शुद्धता ही कारण है, क्योंकि वस्तु का स्वभाव भी इसी प्रकार है तो फिर दासी के साथ विषय-सेवन करने से वह परिणामों की शुद्धता नष्ट हो जाती है।