Book Title: Sramana 2015 10
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 31
________________ 22 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015 सहायक हो सकते हैं। भूख से पीड़ित प्रजा के उपस्थित होने पर कुमार आदिनाथ ने असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प- इन षट्कर्मों का उपदेश दिया। तदनुसार जिन्होंने असि कर्म के माध्यम से देश की सुरक्षा करते हुये अपनी आजीविका प्रारम्भ की वे क्षत्रिय कहलाये। जिन्होंने कृषि और वाणिज्य कर्म को अपनाकर अपनी आजीविका प्रारम्भ की वे वैश्य कहलाये और जिन्होंने विद्या और शिल्प को अपनी आजीविका का आधार बनाया वे शूद्र कहलाये। इस प्रकार आजीविका के आधार पर आदिनाथ को तीन वर्गों की उत्पत्ति में कारण बतलाया गया है। मषि कर्म किस वर्ण का कार्य था इसका उल्लेख देखने में नहीं आया है। सम्भव है इस कार्य को सभी वर्ण के लोगों ने अपनी आजीविका का साधन बनाया हो।१५ प्रजा को कृषि आदि कर्मों में लगाने का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य समन्तभद्र ने किया है।६ तदनन्तर अधिकांश पुराणकारों ने इसका उल्लेख किया है और स्पष्ट लिखा है कि भगवान् ऋषभदेव ने षट्कर्मों के साथ ही तीन वर्गों की भी स्थापना की है और भरत चक्रवर्ती ने ब्राह्मणवर्ण की स्थापना की है। सोमदेवसूरि ने लौकिक धर्म का जैनीकरण किया है। इसके मूल में तत्कालीन ब्राह्मण धर्म का वर्चस्व ही प्रमुख प्रतीत होता है। यदि जन्म से वर्ण व्यवस्था को स्वीकार कर लिया जाये तो जिस व्यक्ति ने शूद्र वर्ण में जन्म लिया है वह आजीवन शूद्र ही रहेगा, किन्तु यदि आजीविका के आधार पर वर्ण व्यवस्था को स्वीकार किया जाता है तो अच्छे कार्य करने पर शूद्र वर्ण में उत्पन्न व्यक्ति भी ब्राह्मण आदि वर्णों की कोटि में आ सकता है।१७ । सोमदेवसूरि के अनुसार जन्म से वर्ण व्यवस्था का कथन न तो ऋषभदेव ने किया है और न ही चक्रवर्ती भरत ने। इसका आधार तो महापुरुष न होकर वैदिक ग्रन्थ श्रुति और स्मृति ही हैं।८ सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्रजी शास्त्री ने लिखा है कि- जैनधर्म की अपेक्षा से इतना ही कहा जा सकता है, 'आध्यात्मिक क्षेत्र में यह (वर्ण व्यवस्था) ग्राह्य न होकर भी सामाजिक क्षेत्र में व्यवहार से मान्य ठहराई गई है। इसलिये ऋषभदेव ने तीन वर्ण की और भरत चक्रवर्ती ने ब्राह्मण वर्ण की स्थापना, जैसा कि सोमदेवसूरि कहते हैं कि एक तो की न होगी और यदि की भी होगी तो वह ऊपर से नहीं लायीं गयी होगी, किन्तु उन्होंने कर्म के अनुसार नामकरण करके यह प्रजा के ऊपर छोड़ दिया होगा कि वह अपने-अपने कर्म के अनुसार उस-उस वर्ण को स्वीकार कर ले। १९ पण्डित जी आगे लिखते हैं कि- वर्णाश्रम धर्म जैनधर्म का अंग नहीं है और इसलिए हम

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