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12 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015 ईस्वी) के आचार्यों के जीवन-घटनाओं को चरित-ग्रन्थों के अन्तर्गत रखा गया है तथा उनके बाद के महापुरुषों की जीवन-घटनाओं को प्रबन्ध-साहित्य के अन्तर्गत। आचार्य राजशेखर के कहने का तात्पर्य यह था कि राजाओं, गुणीवान पुरुषों, आचार्यों, श्रावकों, तीर्थों तथा ऐतिहासिक घटनाओं को लेकर लिखे गये वृत्त-प्रबन्ध हैं। हालांकि राजशेखर के कथन की कोई प्राचीन आधारशिला नहीं दिखायी देती और न कोई लक्ष्मण रेखा है जहाँ चरितों एवं प्रबन्धों को सर्वथा अलग-अलग खानों में रखा जा सके। उदाहरणस्वरूप- आचार्य हेमचन्द्र का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित तथा मेरुतंग का प्रबन्धचिंतामणि क्रमशः सर्वाधिक प्रसिद्ध चरित एवं प्रबन्ध-ग्रन्थ हैं। दोनों को सर्वरूपेण अलग कर पाना अत्यधिक कठिन है। दोनों में अर्ध-ऐतिहासिक वृत्तान्त हैं तथा दोनों में कल्पनाओं/अलौकिकताओं की हल्की सी छौंक भी है। चरितों एवं प्रबन्ध ग्रन्थों में एक अन्तर अवश्य द्रष्टव्य है। चरित-ग्रन्थों में नायक में गुण ही गुण दिखाए जाते हैं, वहीं प्रबन्ध ग्रन्थों में नायक के गुणों के साथ उसके अवगुणों एवं दुर्बलताओं का भी वर्णन होता है इसमें जीवन की वास्तविक घटनाएँ अपने मूलरूप में प्रदर्शित की जाती हैं। इस प्रकार प्रबन्ध-साहित्य हिन्दू पुराणों एवं जैन चरित ग्रन्थों की तुलना में ज्यादा ऐतिहासिक हैं। यही कारण है कि उनमें वर्णित सामाजिक-धार्मिक एवं आर्थिक घटनाओं को तत्कालीन समाज का दर्पण माना जाता है। आधुनिक भारत का गुजरात प्रान्त इस दृष्टिकोण से विशेष भाग्यशाली रहा कि
जैन आचार्यों ने अपने सर्वाधिक प्रबन्ध इसी भूमि पर लिखे। गुजरात ने भारतीय इतिहास के इतने कड़वे सच चखें हैं कि यहाँ ऐतिहासिक संवेदना एवं चेतना स्वत: उत्पन्न सी हो गई। भारत के अन्य किसी प्रान्त को यह श्रेय नहीं जाता। जैन आचार्यों ने १३वीं शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर १६वीं शताब्दी के अन्त तक मालवा, गुजरात एवं राजस्थान के सम्बन्ध में प्राकृत-अपभ्रंश एवं संस्कृत में प्रबन्ध ग्रन्थों की रचनाएँ की। मेधावी आचार्यों ने अपने काल की घटनाओं को तो लिपिबद्ध किया ही, अपने काल के पूर्व की ऐतिहासिक घटनाओं एवं वंशावलियों को भी सशक्त रूप से सामने रखा। अपने पूर्व की घटनाओं को उन्होंने जनश्रुति से ग्रहण किया जिसकी अधिकांश बातें इतिहास सम्मत थीं। इस सशक्त विधा से भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन में अत्यधिक सहायता प्राप्त हुई। मालवा, गुजरात एवं राजस्थान के सटे हुए प्रदेश की ऐतिहासिक घटनाएँ पूरे उत्तर भारत से सम्बद्ध थीं, अत: यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि पूर्वमध्यकाल एवं मध्यकाल की ऐतिहासिक घटनाओं के लिए प्रबन्ध-ग्रन्थों का अध्ययन सर्वथा अपेक्षित है। दूसरे शब्दों में, हर्ष की मृत्यु (सातवीं शताब्दी का मध्य) से लेकर मुगलकाल के पतन (अठारहवीं शताब्दी का प्रारम्भ) तक की