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14 : श्रमण, वर्ष 66, अंक 4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2015
सिरिवत्थुपालनंदणमंतीसरजयंतसिंह भणणत्थं।
नागिंदगच्छमंडणउदयप्पहसूरिसीसेणं।। जिणभद्देण य विक्कमकालाउ नवइ अहियवारसए।
नाणा कहाणपहाणा एस पबंधावलि रईआ।।३ इस गाथा से स्पष्ट है कि जिनभद्र के समय अर्थात् १२३३ई० तक इसके अधिकांश प्रबन्ध अस्तित्व में आ चुके थे। हमने उपर्युक्त पंक्तियों में जो यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि मेरुतुंग एवं राजशेखर दोनों ने अधिकांश प्रबन्धों को अपने पूर्वकर्तृक लेखकों से लिया है- इस कथन से उसकी पुष्टि होती है। प्रस्तुत प्रबन्धसंग्रह में भी कुछ कथानक ऐसे हैं जो प्रबन्धचिन्तामणि एवं प्रबन्धकोश में समान रूप से मिलते हैं। उदाहरणस्वरूप-कुमारपाल एवं विक्रमचरित्र सम्बन्धी अनेक कथानक हैं जो प्रबन्धकोश एवं पुरातनप्रबन्धसंग्रह में, थोड़े परिवर्तन के साथ, समान रूप से मिलते हैं। ठीक इसी प्रकार प्रबन्धचिन्तामणि में वर्णित उदयनप्रबन्ध, रैवतीतीर्थोद्धारप्रबन्ध, सोनलवाक्य, अंबडप्रबन्ध, अजयपालप्रबन्ध आदि कुछ प्रबन्ध दोनों में समान रूप से मिलते हैं। इस सम्बन्ध में यहाँ यह कहना महत्त्वपूर्ण है कि मेरुतुंग तथा राजशेखर के प्रबन्धों की तुलना में इस संग्रह के कुछ प्रबन्ध निश्चित ही पहले के हैं। मनीषी आचार्य जिनविजयजी ने भाषागत अपने संक्षिप्त अध्ययन में इस तथ्य की पुष्टि की है। इसमें सन्देह नहीं कि पुरातनसंग्रह में समाविष्ट कुछ कथानक भारतीय इतिहास पुनर्लेखन के लिए अति महत्त्वपूर्ण हैं। उनसे प्राप्त विवरण के आधार पर ऐतिहासिक घटनाओं की नई इबारत लिखी जा सकती है। उदाहरणार्थ- हम पृथ्वीराजप्रकरण को लें। पाश्चात्य विद्वानों एवं उनका अनुसरण करते हुए कुछ भारतीय विद्वानों ने पृथ्वीराज के समकालीन चन्दबरदाई कृत 'पृथ्वीराजरासो' को कपोलकल्पित ग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयास किया है। यदि हम पुरातनप्रबन्धसंग्रह के 'पृथ्वीराजप्रकरण' को पढ़ें तो सत्य का साक्षात्कार होता है। पूर्वाग्रह से ग्रसित इन विद्वानों के तर्क बालू की नींव पर आधारित दिखायी देते हैं। इस संग्रह में ऐसे पद्य वर्णित हैं जो 'पृथ्वीराजरासो' के बिलकुल समतुल्य हैं। उनकी भाषा भी आश्चर्यजनकरूप से समान है। एक पद्य की समता द्रष्टव्य है
इक्कु बाणु पहुवीसु जु पई कइंबासह मुक्कओ। उर भिंतरि खडहडिउ धीर कक्खंतरि चक्कउ।। - बीअं करि संधीउं भमइ सूमेसरनंदण! एहु सु गडि दाहिमओ खणइ खुद्दइ सइंभरिवणु।।