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श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४
में विस्तार से स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क का स्वतंत्र प्रमाण्य स्थापित किया है। विस्तारभय से यहाँ उन तर्कों को प्रस्तुत करना संभव नहीं है। फिर भी यह ज्ञातव्य है कि अकलंक, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि आदि ने बौद्धाचार्यों द्वारा स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को प्रमाण नहीं मानने का अनेक युक्तियों से खण्डन किया है।
__ जहाँ तक आगम प्रमाण का प्रश्न है, बौद्ध वैशेषिकों के समान ही इसका अंतर्भाव अनुमान प्रमाण में करते हैं। जबकि जैन उसे स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं। किन्तु यहाँ यह ज्ञातव्य है कि, जैन दार्शनिकों के समान ही धर्मकीर्ति भी शब्द को पौरुषेय मानते हैं। फिर भी वे उसे स्वतंत्र प्रमाण नहीं मानते। जबकि जैन दार्शनिक अकलंक, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र आदि ने आगम को स्वतंत्र प्रमाण मानने के संदर्भ में अनेक युक्तियाँ दी हैं, साथ ही बौद्धों द्वारा आगम को अनुमान में समाहित करने के दृष्टिकोण की विस्तृत समीक्षा भी की है। जैन दार्शनिकों का यह वैशिष्ट्य है कि उन्होंने स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और आगम का परोक्षप्रमाण में अन्तर्भाव करके भी प्रत्येक को स्वतंत्र रूप से प्रमाण माना है। सम्पूर्ण भारतीय दर्शनों में स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को स्वतंत्र रूप से प्रमाण का स्थान देना केवल जैनदर्शन का ही वैशिष्ट्य है। अन्य दर्शनों ने इनकी उपयोगिता को तो स्वीकार किया, किन्तु उन्हें स्वतंत्र प्रमाण होने का गौरव नहीं दिया। प्रमेय का स्वरूप एवं समीक्षा :
जहाँ तक प्रमेय का प्रश्न है, जैन दर्शन में उत्पादव्ययघ्रौव्यलक्षणयुक्त सामान्य, विशेषात्मक और द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुतत्त्व या अर्थ को ही समस्त प्रमाणों का विषय माना है। जैन दार्शनिक बौद्ध दार्शनिकों के समान अलग-अलग प्रमाणों के लिए अलगअलग प्रमेयों की व्यवस्था नहीं करते हैं। वस्तुतः जहाँ बौद्ध प्रमाणव्यवस्थावादी हैं वहाँ जैन प्रमाणसंप्लववादी हैं। बौद्ध दर्शन में प्रमेय दो हैं - १. स्वलक्षण और २. सामान्य लक्षण। पुन: उनके अनुसार प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय स्वलक्षण अर्थ अर्थात् परमार्थसत् है और अनुमान प्रमाण का विषय सामान्यलक्षण या संवृत्तिसत् है। यद्यपि बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति स्वलक्षण को ही एक मात्र प्रमेय मानते हैं, क्योंकि उसी में अर्थक्रियासामर्थ्य है। जैन दार्शनिकों ने धर्मकीर्ति के दर्शन को विज्ञानद्वैतवाद माना है, विज्ञानद्वैतवादी होने के कारण धर्मकीर्ति के मत में परमार्थसत् तो एक ही हैं अत: प्रमेय भी भिन्न-भिन्न नहीं हो सकते, यदि सामान्यलक्षण को प्रमेय कहा जायेगा तो वह तो काल्पनिक और अवस्तु रूप है, वह प्रमेय नहीं हो सकता है। पुन: जैन दार्शनिकों का कहना है प्रमेय या अर्थ जब भी प्रतिभासित होता है, वह सामान्य विशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक ही होता है। द्रव्य से रहित पर्याय और पर्याय से रहित द्रव्य की अनुभूति नहीं है, उसी प्रकार सामान्य से रहित विशेष और विशेष से रहित सामान्य
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