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नेमिदूतम् का अलङ्कार-लावण्य : ५९ ।।
में अनुप्रास, उपमा आदि काव्य के शरीरभूत शब्द-अर्थ को अलङ्कृत करते हैं, इसलिए अलङ्कार कहलाते हैं।
अलङ्कार अलङ्कार्य का केवल उत्कर्षाधायक तत्त्व होता है, स्वरूपाधायक अथवा जीवनाधायक तत्त्व नहीं। जो नर-नारी अलङ्कार (आभूषण) विहीन हैं वे भी मनुष्य हैं, किन्तु जो अलङ्कारयुक्त हैं वे अधिक सुन्दर लगते हैं। इसी प्रकार काव्य में अलङ्कारों की स्थिति अपरिहार्य नहीं है। यदि वे हैं, तो काव्य के उत्कर्षाधायक होंगे। इसलिये अलङ्कारों को काव्य का अस्थिर धर्म माना गया है।
वस्तुत: रस, भावादि काव्यशोभा के जनक हैं। अलङ्कार उनके द्वारा उत्पन्न शोभा को अतिशयित करते हैं। अलङ्कार के लिये सरस वाक्य अपेक्षित हैं। नीरस वाक्यों में अलङ्कार केवल विचित्रता को उत्पन्न करते हैं।
अलङ्कारों के मुख्यत: दो भेद किये गये हैं - शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार। जो अलङ्कार शब्दपरिवृत्त्यसह होते हैं, अर्थात् किन्हीं विशेष शब्दों के रहने पर ही रहते हैं, वे अलङ्कार उन विशेष शब्दों के आश्रित होने से शब्दालङ्कार कहलाते हैं, जैसेअनुप्रास, श्लेष, यमक, वक्रोक्ति आदि। किन्तु जो अलङ्कार शब्दपरिवृत्तिसह होते हैं अर्थात उन शब्दों का परिवर्तन करके उनके समानार्थक दूसरे शब्द प्रयुक्त कर दिये जाने पर भी, बने रहते हैं, वे अर्थाश्रित होने से अर्थालङ्कार कहलाते हैं, जैसे - उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि। नेमिदूतम् का अलङ्कारलावण्य
कवि विक्रम ने नेमिदूतम् में अनेकविध अलङ्कारों का सफल प्रयोग किया है। ये अलङ्कार कवि के प्रतिभावैशिष्ट्य को प्रकाशित करते हैं तथा सहृदयवृन्द को आह्लादित एवं चमत्कृत किये बिना नहीं रहते। इस दूतकाव्य के अनेक पद्य दो, तीन या चार अलङ्कारों के गुच्छ से समलङ्कृत हैं। नेमिदूतम् में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा प्रभृति बहुप्रचलित अलङ्कारों के साथ-साथ भाविक, पर्याय, विनोक्ति आदि अल्पप्रचलित अलङ्कारों का भी रम्य विनियोग हुआ है, जो अलङ्कारसज्जा में कवि के असाधारण अधिकार को रेखाङ्कित करता है। नेमिदूतम् में प्रायः अलङ्कारों की स्वाभाविक प्रस्तुति हुई है, एतदर्थ ग्रन्थकार को विशेष प्रयत्न करना पड़ा हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता।
कवि ने शब्दालङ्कार एवं अर्थालङ्कार दोनों का अपने काव्य में यथावसर प्रयोग किया है। यहाँ प्रथमतः शब्दालङ्कारों का विवेचन किया जा रहा है, तदुपरान्त अर्थालङ्कारों पर विचार किया जायेगा।
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