Book Title: Sramana 2004 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 73
________________ श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९ / जुलाई-सितम्बर २००४ विवेच्य कृति में अनेक स्थलों पर ६३ अर्थापत्ति अलङ्कार का सौन्दर्य परिलक्षित होता है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है - क्रूरस्तस्मिन्नपि न सहते संगमं नौ कृतान्तः ॥ ६४ ६८ : 'निर्दय दैव स्वप्न में भी हम दोनों (राजीमती और नेमिनाथ) के मिलन को सहन नहीं करता' यहाँ 'तस्मिन्नपि ' पद से जाग्रत् अवस्था के अर्थापन होने के कारण अर्थापत्ति अलङ्कार है। उदात्त आचार्य विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण के दशम परिच्छेद में उदात्त अलङ्कार का स्वरूप प्रकाशित करते हुए कहा है - लोकातिशयसम्पत्तिवर्णनोदात्तमुच्यते। यद्वापि प्रस्तुतस्याङ्गं महतां चरितं भवेत् ॥ ६५ अर्थात् लोकोत्तर सम्पत्ति का वर्णन होने पर तथा महापुरुषादि का चरित प्रस्तुत वस्तु का अङ्ग होने पर उदात्त अलङ्कार होता है । मदूतकार ने उदात्त अलङ्कार के विनियोग में पर्याप्त रुचि प्रदर्शित की है। कतिपय काव्यांश प्रस्तुत हैं अत्रत्युयैः किल मुनिवरो वामनः प्राक्तपोभिलब्ध्वा सिद्धिं सकलभुवनव्यापिना विग्रहेण । ईशं वासं भुजगसदने प्रापयछानवाना मित्यागन्तून् रमयति जनो यत्र बन्धूनभिज्ञः ।। ६६ - यहाँ भगवान् वामन का चरित अवन्तिवर्णन का अङ्ग है । अत: इस पद्य में उदात्त अलङ्कार है। सौधश्रेणीर्विततविलसत्तोरणान्तर्व्यतीत्य, स्वावासं तं मणिचयरुचा भासुरं प्राप्स्यसि त्वम् । ६७ प्रस्तुत श्लोकार्द्ध में नेमिनाथ के द्वारिकास्थित निवासगृह की लोकोत्तर सम्पत्ति का वर्णन होने से उदात्त अलङ्कार है। इसी प्रकार कवि ने नेमिदूतम् में उदात्त अलङ्कार की अन्यत्र भी योजना की है, ६८ जो उपर्युक्त स्थलों के सदृश ही भावपूर्ण है। स्वभावोक्ति - स्वभावोक्ति गूढ़ार्थप्रतीतिमूलक अर्थालङ्कार है। काव्यप्रकाशकार ने इसका विवेचन इन शब्दों में किया है - स्वभावोक्तिस्तु डिम्भादेः स्वक्रियारूपवर्णनम् । ६९ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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