Book Title: Sramana 2004 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 126
________________ छाया: प्रेक्ष्यत एकस्मिन्नरे कियत्-गुण-समुदायः समं वसति ? | बहु-रत्ना खलु वसुमती सत्यो लोक-प्रवादोऽयम् ।।४७॥ अर्थ :- जुओ ! एकज माणसमां केटलो गुण समूह सार्थ रहे छे। खरेखर ! 'बहुरत्ना वसुंधरा' ए प्रमाणे लोकोनो आ प्रवाद सत्य छ। हिन्दी अनुवाद :- देखो ! एक ही मानव में कितने गुण समूह साथ में रहते हैं। निश्चय ही 'बहुरत्ना वसुंधरा' इस प्रकार की लोकोक्ति सत्य है। गाहा : धी! धी ! मह पुरिसत्तं धी! धी! मह एरिसाए वित्तीए । निय-कुल-कलंक-भूयस्स मज्झ धी! पुरिस - जम्मेण ।।४८।। छाया :धिक ! धिक ! मम पौरुषत्वं धीक् ! धीक् ! ममेहशया-वृत्त्या । निज-कुल-कलंक-भूतस्य मम धीक्! पुरुष-जन्मना ।।४८॥ अर्थ :- धिक्कार छे मारा पुरुषत्वने ! मारी आवा प्रकारनी वृत्तिने धिक्कार हो! धिक्कार हो ! पोताना कुलने कलंकरूप मारा नर जन्मने धिक्कार हो ! धिक्कार हो! हिन्दी अनुवाद :- धिक्कार हो मेरे पुरुषत्व को, धिक्कार हो ! मेरी इस प्रकार की वृत्ति को, धिक्कार हो ! अपने कुल के कलंकरूप मेरे नर जन्म को धिक्कार हो ! धिक्कार हो ! गाहा : धी ! मज्झ जीविएण कुकम्म-निरयस्स धम्म-रहियस्स । एयारिस-पुरिसाणं लुंटण-कम्मम्मि निरयस्स ।।४९।। छाया: धिक् मम जीवितेन कुकर्म निरतस्य धर्म-रहितस्य । एतद्दिश-पुरुषाणां लुण्टन-कर्मणि निरतस्य ॥४९॥ अर्थ :- कुकर्ममां रत, धर्म रहित आवा प्रकारनां पुरुषने लुटवामां अत्यंत रत एवा मारा जीवितने धिक्कार हो. हिन्दी अनुवाद :- कुकर्म में रत, धर्म रहित, इस प्रकार के पुरुष को लूटने में अत्यंत रत ऐसे जीवित को भी धिक्कार हो। गाहा : एत्तियमेत्तेणं चिय धन्नोऽहं जं महाणुभावस्स । अक्खय-देहस्स इमस्स दंसणं झत्ति संजायं ।।५०॥ छाया: एतद् मत्रिणव धन्योऽहं यद् महानुभावस्य । अक्षत-देहस्य एतस्य दर्शनं झाटिति संजातं ॥५०॥ अर्थ :- एटला प्रमाणमां ज हुं धन्य छु के जे आ महात्माना अखण्ड देहचं दर्शन जल्दी थयु। 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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