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नेमिदूतम् का अलङ्कार - लावण्य
नेमिदूतम् के अन्य पद्यों में अर्थालङ्कारों की संसृष्टि इस प्रकार देखी जा सकती है -
• उत्प्रेक्षा - अर्थापत्ति, ११५
रूपक - काव्यलिङ्ग, ११६
रूपक - उदात्त, ११७
रूपक - उपमा, ११८
रूपक - उत्प्रेक्षा, ११९
उपमा - प्रतीप, १२०
उपमा - अर्थान्तरन्यास,
१२१
उपमा - उत्प्रेक्षा, १२२
तथा
काव्यलिङ्ग - उपमा १२३ उपमा - उत्प्रेक्षा - प्रतीप । १२४
सङ्कर - सङ्कर गूढार्थप्रतीतिमूलक अलङ्कार है। दो या अधिक अलङ्कारों की, जल और दुग्ध के समान, परस्पर सापेक्षभाव से एकत्र स्थिति ही सङ्कर अलङ्कार कहलाती है। सङ्कर अलङ्कार तीन प्रकार का होता है - (क) अङ्गाङ्गिभावसङ्कर, (ख) सन्देहसङ्कर तथा (ग) एकाश्रयानुप्रवेशसङ्कर, जैसा कि आचार्य विश्वनाथ का कथन हैअङ्गाङ्गित्वेऽलंकृतीनां तद्वदेकाश्रयस्थितौ ।
संदिग्धत्वे च भवति सङ्करस्त्रिविधः पुनः ।। १२५
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अर्थात् सङ्कर तीन प्रकार का होता है - (क) जहाँ कई अलङ्कारों में अङ्ग-अङ्गि भाव हो, (ख) जहाँ एक ही आश्रय में (शब्द या अर्थ) में अनेक अलङ्कारों की स्थिति हो एवं (ग) जहाँ कई अलङ्कारों का सन्देह होता हो ।
सङ्कर अलङ्कार के प्रयोग में भी कवि विक्रम ने वही दृष्टि अपनायी है, जो संसृष्टि अलङ्कार के विन्यास में अपनायी है । नेमिदूतम् के एक-एक पद्य में दो-दो या तीनतीन अलङ्कारों का परस्पर सापेक्षभाव से गुम्फन करके उन्होंने सङ्कर अलङ्कार की सज्जा की है। कतिपय स्थल द्रष्टव्य हैं -
जह्रोः पुत्री तदनुदधतीं तामिवेर्ष्या सपत्न्याः शम्भोः केशग्रहणमकरोदिन्दुलग्नोर्मिहस्ता ।। १२६
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'गङ्गा ने इस पार्वती से, सपत्नीभाव के कारण, ईर्ष्या करते हुए मानो (शिव के मस्तक पर स्थित ) चन्द्रमा पर लहर रूपी हाथ रखकर शिव के केशों को पकड़ लिया' - यहाँ उत्प्रेक्षा एवं रूपक अलङ्कारों का अङ्गाङ्गिभाव सम्बन्ध होने के कारण सङ्कर अलङ्कार है।
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