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: श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९ / जुलाई-सितम्बर २००४
इत्युक्तेऽस्या वचनविमुखं मुक्तिकान्तानुरक्तं, दृष्टवा नेमिं किल जलधरः सन्निधौ भूधरस्थ: । तत्कारुण्यादिव नवजलाश्राणुविद्धां स्म धत्ते, खद्योतालीविलसितनिभां विद्युदुन्मेषदृष्टिम् ।। १२७
इस पद्य में रूपक (मुक्तिकान्तानुरक्तं), उत्प्रेक्षा (तत्कारुण्यादिव) एवं उपमा (खद्योतालीविलसितनिभाम्) अलङ्कारों का अङ्गाङ्गिभाव सम्बन्ध होने के कारण सङ्कर अलङ्कार है।
योगसक्तं सजलजलदश्यामलं राजपुत्री । १ १२८
प्रस्तुत चरण में प्रयुक्त 'सजलजलदश्यामलं' पद में लुप्तोपमा एवं छेकानुप्रास अलङ्कारों छटा विद्यमान होने से एकाश्रयानुप्रवेश सङ्कर है।
नेमिदूतम् के अन्य स्थलों पर भी सङ्कर अलङ्कार का लावण्य दृष्टिगोचर होता
है,
यथा
-
अनुप्रास - उपमा, १२९
उपमा - काव्यलिङ्ग, १३० अर्थान्तरन्यास - अर्थापत्ति, १३१
रूपक - अर्थान्तरन्यास, १३२ अनुप्रास - अर्थान्तरन्यास, १३३ उपमा - काव्यलिङ्ग, १३४ अर्थान्तरन्यास - काव्यलिङ्ग, १३५ उत्प्रेक्षा - अनुप्रास १३६ एवं उदान्त - उत्प्रेक्षा । १३७
निष्कर्ष
इस प्रकार नेमिदूतम् में प्रयुक्त विविध शब्दालङ्कारों एवं अर्थालङ्कारों के समीक्षण से यह तथ्य भलीभाँति प्रमाणित होता है कि कवि विक्रम अलङ्कारसज्जा में अत्यन्त निपुण हैं। उन्होंने इस कृति में - अर्थान्तरन्यास, उपमा, उत्प्रेक्षा, काव्यलिङ्ग, उदात्त, प्रतीप एवं अर्थापत्तिलङ्कारों के विन्यास में अधिक रुचि ली है । शब्दालङ्कारों में से उन्होंने मात्र अनुप्रास अलङ्कार का ही बहुलता के साथ विनियोग किया है।
कवि की इस अलङ्कार - प्रस्तुति के विषय में यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने एक-एक पद्य में दो, तीन या चार अलङ्कारों का संश्लेषण एक साथ कर दिया है। तथापि पद्य का मूल भाव एवं बाह्य शिल्प पूर्णतः अक्षुण्ण रहा है। इसके परिणामस्वरूप नेमिदूतम् का अलङ्कारलावण्य सहृदयवृन्द को चमत्कृत एवं आह्लादित करने में
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