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खरतरगच्छ - सागरचन्द्रसूरिशाखा का इतिहास : ८३
दयासागरगणि के शिष्य वाचक ज्ञानमंदिरगणि ने वि०सं० १५६२ में पिण्डनियुक्ति का संशोधन किया।६ ज्ञानमंदिरगणि के शिष्य देवतिलक हुए जिन्होंने वि०सं० १५६४ में अपने गुरु के समक्ष संघपट्टकवृत्तिसह का संशोधन किया। इनके शिष्य उपाध्याय हर्षप्रभ हुए जिनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती किन्तु इनके शिष्य हीरकलश ने वि०सं० १६०८ या १६१८ में मरु-गुर्जर भाषा में मुनिपतिचरित्र की रचना की। इसकी प्रशस्ति के अन्तर्गत ग्रन्थकार ने अपनी लम्बी गुर्वावली दी है, जो निम्नानुसार है :
सागरचन्द्रसूरि
महिमराज
दयासागरगणि
वाचक ज्ञानमंदिरगणि उपाध्याय देवतिलक उपाध्याय हर्षप्रभ मनि हीरकलश (वि० सं० १६०८/ई०स० १५५२ या वि०सं० १६१८/
ई०स० १५६२ में मुनिपतिचरित्र के रचनाकार) वि०सं० १५३०-५२ के मध्य मरु-गुर्जर भाषा में रची गयी कृति रूपकमाला के रचनाकार पुण्यनंदि भी इसी शाखा से सम्बद्ध थे। कृति प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है :
सागरचन्द्रसूरि
महिमराज
रत्नकीर्ति
समयभक्त
पुण्यनंदि (वि० सं० १५३०-५२ के मध्य रूपकमाला के रचयिता)
इसी प्रकार वि० सं० १६६४ में प्रतिलिपि की गयी शाम्ब-प्रद्युम्नचौपाई की दाताप्रशस्ति ° में भी लिपिकार ने अपने गुरु-परम्परा की लम्बी गुर्वावली दी है, जो निम्नानुसार है :
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