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८६ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४
वि० सं० १७६२ में लिपिकृत चतुर्विंशतिस्तव की प्रशस्ति१३ में प्रतिलिपिकार सुखहेम ने भी स्वयं को खरतरगच्छ की सागरचन्द्रसूरि शाखा से सम्बद्ध बतलाते हुए अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो निम्नानुसार है :
महिमाहेगणि कल्याणसागर आनन्दधीर सुखहेम (वि०सं० १७६२ में चतुर्विंशतिस्तव के प्रतिलिपिकार)
मुनि सुखहेम के शिष्य सुखविलास ने वि०सं० १८०४ में धर्मबुद्धिपापबुद्धिचौपाई१४ की प्रतिलिपि की।
इसी प्रकार वि० सं० १७७८ में हंसराजवच्छराजचौपाई१५ और वि०सं० १७८८ में नलदमयन्तीरास१६ के प्रतिलिपिकार मुनि चतुरहर्ष ने भी स्वयं को सागरचन्द्रसूरिशाखासे सम्बद्धबतलातेहुए अपनीलम्बी गुर्वावलीदीहै, जोइसप्रकार है: सागरचन्द्रसूरिसंतानीय महिमाहेमगणि
कल्याणसागरगणि देवधीर हेमहर्ष मुनि चतुरहर्ष (वि०सं० १७७८ में हंसराजवच्छराजचौपाई और
वि० सं० १७८८ में नलदमयन्तीरास के प्रतिलिपिकार) उक्त दोनों प्रशस्तियों के समायोजन से एक नई तालिका संगठित की जा सकती है, जो निम्नानुसार है : द्रष्टव्य - तालिका - २ सागरचन्द्रसूरिसंतानीय महिमाहेमगणि
कल्याणसागरगणि आनन्दधीर
देवधीर सुखहेम (वि०सं० १७६२ में चतुर्विंशति हेमहर्ष
| स्तव के प्रतिलिपिकार) सुखविलास (वि०सं० १८०४ में धर्मबुद्धि- चतुरहर्ष (वि०सं० १७७८ में हंसराजवच्छपापबुद्धि चौपाई के प्रतिलिपिकार) राज चौपाई एवं वि० सं० १७८८
में नलदमयन्तीरास के प्रतिलिपिकार)
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