Book Title: Sramana 2004 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 92
________________ खरतरगच्छ - सागरचन्द्रसूरिशाखा का इतिहास : ८७ सागरचन्द्रसूरिशाखा के राजेन्द्रगणि के प्रशिष्य एवं वाचक जयनिधानगणि के शिष्य मुनिकमल सिंह ने सिन्धुदेश में वि० सं० १६७४ में ज्ञाताधर्मकथा की प्रतिलिपि की।१६अ वि०सं० १७२१ में अभिधानचिन्तामणिनाममाला के प्रतिलिपिकार वाचक कमलरत्नगणि भी सागरचन्द्रसूरि शाखा से सम्बद्ध थे। इसकी दाताप्रशस्ति१७ में उन्होंने अपनी गुरु-परम्परा के कुछ मुनिजनों का नामोल्लेख किया है, जो इस प्रकार है : सागरचन्द्रसूरिशाखा के दयारत्नगणि उपा० शिवदेव उपा० राजचन्द्र वाचक जयनिधान वाचक कमलसिंह वाचक कमलरत्नगणि (वि० सं० १७२१/ई० सन् १६६५ में अभिधानचिन्तामणिनाममाला के प्रतिलिपिकार) इस प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि इन्होंने उक्त ग्रन्थ को अपने शिष्य दानचन्द्र के पठनार्थ लिखा था। वि०सं० १७३०/ई०स० १६७४ में मृगावतीचरित के प्रतिलिपिकार'८ भी उक्त दानचन्द्र ही थे। वि०सं० १७३७ में पं० नयनानन्द द्वारा लिखीगयी शब्दशोभाव्याकरणवृत्तिसह की प्रशस्ति१९ से ज्ञात होता है कि प्रतिलिपिकर्ता कमलचन्द्रगणि के प्रशिष्य और मुनि ज्ञानचन्द्र के शिष्य थे। उक्त तीनों प्रशस्तियों में दी गयी गुर्वावलियों के आधार पर सागरचन्द्रसूरि शाखा के मुनिजनों की एक अन्य तालिका संगठित होती है, जो इस प्रकार है : द्रष्टव्य - तालिका - ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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