________________
खरतरगच्छ - सागरचन्द्रसूरिशाखा का इतिहास
शिवप्रसाद *
खरतरगच्छ में समय-समय पर अस्तित्त्व में आयी विभिन्न शाखाओं में सागरचन्द्रसूरिशाखा भी एक है । परन्तु यह स्वतंत्र शाखा न होकर बल्कि मुख्य परम्परा की आज्ञानुवर्ती रही है। आचार्य जिनोदयसूरि के प्रशिष्य और जिनराजसूरि के शिष्य सागरचन्द्रसूरि अपने समय के प्रभावशाली जैनाचार्य थे। आचार्य जिनराजसूरि के वि० सं० १४६१/ ई० सं० १४०५ में निधन होने पर इन्होंने जिनवर्धनसूरि को उनके पट्ट पर प्रतिष्ठित किया। वि० सं० १४७५ में कुछ अपरिहार्य कारणों से सागरचन्द्रसूरि ने जिनवर्धनसूरि के स्थान पर जिनभद्रसूरि को अपने गुरु जिनराजसूरि का पट्टधर बनाया।'
श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९ जुलाई-सितम्बर २००४
सागरचन्द्रसूरिशाखा के इतिहास के अध्ययन के लिये इस परम्परा के विभिन्न मुनिजनों द्वारा रचित और अध्ययनार्थ प्रतिलिपि किये गये ग्रन्थों की प्रशस्तियों में इस शाखा के विभिन्न मुनिजनों के नाम प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार इस शाखा से सम्बद्ध कुछ अभिलेखीय साक्ष्य भी मिले हैं, जो वि० सं० १७५५ से वि० सं० १९६५ तक के हैं । २ ये लेख इस शाखा के विभिन्न मुनिजनों की चरणपादुकाओं आदि पर उत्कीर्ण हैं। यद्यपि इनसे इस गच्छ
इतिहास पर कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता, फिर भी विक्रम सम्वत् की २० वीं शताब्दी के छठें दशक के मध्य तक इस शाखा के अस्तित्त्ववान होने के अकाट्य प्रमाण हैं। वर्तमान इस शाखा के एक-दो यति भीनासर में विद्यमान् हैं।
२अ
इस शाखा के आदिपुरुष सागरचन्द्रसूरि द्वारा रचित न तो कोई कृति प्राप्त हुई और न ही इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख ही प्राप्त होता है। किन्तु इनकी परम्परा में हुए दयासागर गणि ने वि० सं० १५१० में ओघनियुक्ति और वि० सं० १५१४ में षट्स्थानकप्रकरणवृत्ति की स्वयं द्वारा लिखी गयी प्रतिलिपि की प्रशस्ति में अपने प्रगुरु के रूप में आचार्य सागरचन्द्रसूरि का सादर उल्लेख किया है। उनके द्वारा दी गयी गुर्वावली इस प्रकार है :
सागरचन्द्रसूरि
महिमराज
दयासागरगणि ( वि० सं० १५१० में ओघनिर्युक्ति और वि०सं० १५१४ में षट्स्थानकप्रकरणवृत्ति के प्रतिलिपिकार)
* प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
"
www.jainelibrary.org