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श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४
निश्चय ही (बीच में) ढीले नहीं पड़ते हैं' इस सामान्य कथन से किया गया है। अत: यहाँ अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है।
___ अर्थान्तरन्यास अलङ्कार के प्रयोगों में ग्रन्थकार ने अनेक सूक्तियों का समावेश कर दिया है। यथा निम्नोद्धृत श्लोकार्द्ध में एक साथ दो सूक्तियाँ समाविष्ट हैं -
स्नेहादेते न खलु मुखरा याचिता: सम्भवन्ति, प्रयुक्तं हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थक्रियैव।।५२
अर्थात् सज्जनों से याचना करने पर वे स्नेह के कारण वाचाल नहीं होते हैं, क्योंकि याचकों के अभिलषितअर्थ का सम्पादन ही सज्जनों का प्रत्युत्तर हुआ करता है। __उक्त स्थलों के अतिरिक्त नेमिदूतम् में अर्थान्तरन्यास के अन्य प्रयोग भी मनोहर हैं।५३
काव्यलिङ्ग - अलङ्कारसर्वस्वकार रुय्यक के अनुसार काव्यलिङ्ग तर्कन्यायमूलक अर्थालङ्कार है। इसका विवेचन करते हुए कविराज विश्वनाथ ने कहा है कि वाक्यार्थ अथवा पदार्थ जहाँ किसी का हेतु हो वहाँ काव्यलिङ्ग अलङ्कार होता है -
हेतोर्वाक्यपदार्थत्वे काव्यलिङ्ग निगद्यते।५४
नेमिदूतम् में अनेक स्थलों पर काव्यलिङ्ग अलङ्कार का सौन्दर्य दृष्टिगोचर होता है, यथा -
त्वां याचेऽहं न पथि भवता क्वापि कार्यों विलम्बो, गन्तव्यातः सपदि नगरी स्वायतः सा त्वदम्बा। मुक्ताहारा सजलनयना त्वद्वियोगार्तिदीना, कायें येन त्यजति विधिना स त्वयैवोपपाद्यः।।५५
इस पद्य के उत्तरार्द्ध का वाक्यार्थ, पूर्वार्द्ध के वाक्यार्थ का हेतु है। अत: यहाँ काव्यलिङ्ग अलङ्कार है।
तस्यादेया स्वशयविहिता सत्क्रिया ते न चेत्स, प्रत्यावृत्तस्त्वयि कररुधि स्यादनल्पाभ्यसूयः।।५६
यहाँ, ‘बलभद्र के मन्त्रियों के हाथों से की गई वस्त्रादि पूजा को तुम ग्रहण कर लेना' इस वाक्यार्थ का हेतु - 'यदि मन्त्री के सत्कार को तुमने स्वीकार नहीं किया तो तुम्हारे द्वारा रोके जाने पर वे अत्यधिक क्रुद्ध हो जायेंगे' यह चतुर्थ चरण का वाक्यार्थ है।
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