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श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९ / जुलाई-सितम्बर २००४
प्रातः कुन्दप्रसवशिथिलं जीवितं धारयेथाः । ३८ + नीपामोदोन्मदमधुकरीगुञ्जनं गीतरम्यं, वेणुक्वणितमधुराबर्हिणां चारुनृत्यम् । ३९
उत्प्रेक्षा - उत्प्रेक्षा सादृश्यमूलक अर्थालङ्कार है। आचार्य मम्मट ने उत्प्रेक्षा अलङ्कार का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है कि प्रकृत (उपमेय) की सम (उपमान) के साथ सम्भावना उत्प्रेक्षा कहलाती है
सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत् । ४०
नेमिदूतम् में उत्प्रेक्षा अलङ्कार के अनेक प्रयोग उपलब्ध होते हैं, यथा भुक्त्वा भोगोपचयमवनिं नाकिनामागतानां,
शीषैः पुण्यैर्हृतमिव दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम् || ४१
यहाँ भगवान् वामन की नगरी उज्जयिनी में स्वर्ग के एक देदीप्यमान् खण्ड की सम्भावना होने से उत्प्रेक्षालङ्कार की सृष्टि हुई है।
त्वत्संयोगान्ननु धृतिसमेता नवद्यांगयष्टि
र्या तत्र स्याद्युवतिविषये सृष्टिराद्येव धातुः ।। ४२
प्रस्तुत काव्यांश में निर्दोष अङ्गोंवाली राजीमती को, युवतियों के मध्य ब्रह्मा की प्रथम रचना -सी बतलाया गया है। इस प्रकार यहाँ उत्प्रेक्षा अलङ्कार की मनहर छटा है।
दुघ्यत्वं शिखरिणी पयोधौ च गाम्भीर्यमुर्व्या, स्थैर्यं तेजः शिखिनि मदने रूपसौन्दर्यलक्ष्मीम् । बुद्धे क्षान्तिं नृवर कलयामीति वृन्दं गुणानां, हन्तैकस्थं क्वचिदपि न ते भीरु सादृश्यमस्ति ।। ४३
'हे नरश्रेष्ठ! मैं राजीमती पर्वत में तुम्हारे बड़प्पन, समुद्र में तुम्हारी गम्भीरता, पृथिवी में तुम्हारी स्थिरता, अग्नि में तुम्हारे तेज, कामदेव में तुम्हारे रूपलावण्य तथा बुद्ध में तुम्हारी क्षमा की सम्भावना करती हूँ।' यहाँ पर्वत आदि में नेमिनाथ के गम्भीरता आदि गुणों की सम्भावना होने से उत्प्रेक्षा अलङ्कार है।
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रूपक
रूपक सादृश्यमूलक अर्थालङ्कार है। जिनके स्वरूप स्पष्टतः भिन्नभिन्न हैं, ऐसे उपमेय और उपमान के अत्यधिक साम्य को दिखाने के लिये जो काल्पनिक अभेदारोप किया जाता है, वही रूपक अलङ्कार कहलाता है। आचार्य मम्मट के मतानुसार उपमान और उपमेय का अभेदवर्णन ही रूपक है
तद्रूपकमभेदोय उपमानोपमेययोः । ४४
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