Book Title: Sramana 2004 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 67
________________ ६२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९ / जुलाई-सितम्बर २००४ अर्थालङ्कार उपमा उपमा सादृश्यमूलक अर्थालङ्कारों का आधार है । इस अलङ्कार का स्वरूप आचार्य मम्मट ने इस प्रकार उद्घाटित किया है - साधर्म्यमुपमा भेदे २१ अर्थात् उपमान एवं उपमेय का भेद होने पर उनके साधर्म्य का वर्णन करना उपमा अलङ्कार कहलाता है। अर्थालङ्कारों में से उपमा नेमिदूतकार का सर्वाधिक प्रिय अलङ्कार है। नेमिदूतम् में इस अलङ्कार की छटा सर्वत्र अनुस्यूत है। कुछ स्थल अवलोकनीय हैं - पूर्णोपमा - वप्रप्रान्ते स्फुरति जलधेर्हारिवेलारमण्याः, भ्रूभङ्गं मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोर्मि ॥ २२ इस श्लोकार्द्ध में समुद्र की तरङ्गयुक्त जलधारा को रमणी के कटाक्षयुक्त मुख की भाँति सुशोभित बतलाया गया है। व्याप्याकाशं नवजलभृतां सन्निभो यो विभाति, श्यामः पादो बलिनियमनाभ्युद्यतस्येव विष्णोः ॥ २३ यहाँ वेणु पर्वत की उपमा बलि को बाँधने के लिये तत्पर भगवान् वामन के साँवले चरण से दी गयी है। या कालेस्मिन्भवनशिखरै: प्रक्षरद्वारि धत्ते, मुक्ताजालग्रथितमलकं कामिनीवभ्रवृन्दम् ॥ २४ 'जो द्वारिका नगरी वर्षाकाल में, भवनशिखरों से, जल बरसाने वाले मेघसमूह को उसी तरह धारण करती है, जैसे कोई सुन्दरी मोती की लड़ियों से गूँथे गये केशकलाप को धारण करती है।' इस वाक्य में पूर्णोपमा अलङ्कार की मधुर छटा है । त्यक्त्वा लोलं नयनयुगलं तेरुणत्वं रुदत्या - मीनक्षोभाच्चलकुवलयश्रीतुलामेष्यतीति ।। २५ प्रस्तुत पद्यार्द्ध में राजीमती के चञ्चल नयनयुगल का साधर्म्य नीलकमल से स्थापित किया गया है। राजीमत्या सह नवघनस्येव वर्षासु भूयो, मा भूदेवं क्षणमपि च ते विद्युता विप्रयोगः ।। २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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