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नेमिदूतम् का अलङ्कार-लावण्य : ६१
कुर्वन् पान्थांस्त्वरितहृदयान् सङ्गमायाङ्गनाना - मेनं पश्याधिगतसमय: स्वं वयस्यं मयूरम्।१६ यहाँ 'अधिगतसमयः' श्लिष्ट पद है। इसके तीन अर्थ हैं -
(क) प्रस्तावविज्ञ, (ख) उपयुक्त काल को जानने वाले तथा (ग) युवावस्था को प्राप्त। इस प्रकार प्रस्तुत पद्यभाग में श्लेषालङ्कार है।
तस्मिनुद्यन्मनसिजरसा: प्रांशुशाखावनाम व्याजादावि:कृतकुचवली नाभिकाञ्चीकलापाः।१७
प्रस्तुत पंक्तियों में प्रयुक्त 'मनसिजरसा:' श्लिष्ट पद है। इससे दो अर्थों का बोध होता है - (क) प्रकट हुए कामानुराग वाली तथा (ख) प्रकट हुए काम के आनन्द या आस्वाद वाली। इस प्रकार यहाँ भी श्लेषालङ्कार की छटा है।
यमक - यदि अर्थ हो तो भिन्न-भिन्न अर्थ वाले (अन्यथा निरर्थक) स्वरव्यञ्जनसमूह की उसी क्रम से आवृत्ति को यमक अलङ्कार कहते हैं -
सत्यर्थे पृथगाया: स्वरव्यञ्जनसंहतेः। क्रमेण तनैवावृत्तिर्यमकं विनिगद्यते।।१८
इस प्रकार स्वरव्यञ्जनसमूह एक सार्थक पद भी हो सकता है और निरर्थक वर्णसमुदाय भी। . नेमिदूतम् में श्लेष के समान ही यमक अलङ्कार का भी अल्प प्रयोग दृष्टिगोचर होता है। किञ्चित् स्थलों का दिग्ददर्शन किया जा सकता है -
भास्वद्भास्वन्मणिमयबृहत्तुङ्गशृङ्गाग्रसंस्थाः सम्प्रत्युद्यत्परिणतफलश्यामला वामभागे। १९
यहाँ ‘भास्वद्-भास्वद्' पदों की आवृत्ति हुई है। इनमें से प्रथम 'भास्वद्' पद का अर्थ है - 'चमकते हुए'। जब कि द्वितीय 'भास्वद्' पद 'मणि' के साथ संयुक्त होकर ‘स्फटिकमणि' अर्थ का वाचक है। इस प्रकार यहाँ यमक अलङ्कार है।
उत्सर्पद्भिर्दधदिव दिवो वर्त्मनो वीचिसंधैः, सोपानत्वं कुरु मणितटारोहणायाग्रयायी।।२०
इस काव्यांश में 'दिव-दिव' पदों की आवृत्ति हुई है। इनमें से प्रथम पद निरर्थक है तथा द्वितीय पद 'आकाश का' अर्थ का वाचक है। इस प्रकार यहाँ भी यमकालङ्कार की अलकृति है।
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