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नेमिदूतम् का अलङ्कार-लावण्य : ६९
अर्थात् बालक आदि की अपनी स्वाभाविक क्रिया अथवा रूप (वर्ण एवं अवयव संगठन) का वर्णन स्वभावोक्ति अलङ्कार कहलाता है।
कविविक्रमकृत स्वभावोक्ति-प्रयोगों में यथार्थता तथा सजीवता के दर्शन होते हैं। इनमें प्रकृति के सुन्दर चित्र अंकित किये गये हैं। एक वर्णन प्रस्तुत है -
तस्मित्रुच्चैर्दलितलहरीसीकरासारहारी, वारांराशेस्तटजविकसत्केतकामोदरम्य:। खेदं मार्ग क्रमणजनितं ते हरष्यित्यजत्रं, शीतो वायुः परिणमयिता काननोदुम्बराणाम्।।७०
'उस वेला तट पर उत्पन्न होने वाले केतकी पुष्पों के मकरन्द से सुगन्धित, ताडित लहरों के जलकणों की तीव्र वर्षा से रुचिकर, वन के गूलरों को पकाने वाला, कोलाहल करता हुआ समुद्र का शीतल पवन निरन्तर तुम्हारे मार्गजन्म श्रम को दूर करेगा।' यहाँ सागर-पवन की स्वाभाविक क्रियाओं का वर्णन होने से स्वभावोक्ति अलङ्कार है। इसी प्रकार कवि ने कतिपय अन्य पद्यों में भी इस अलङ्कार का चित्ताकर्षक विन्यास किया है।
समुच्चय - समुच्चय वाक्यन्यायमूलक अर्थालङ्कार है। आचार्य मम्मट के अनुसार कार्य की सिद्धि का एक हेतु विद्यमान रहने पर भी जहाँ अन्य हेतु भी उसका साधक हो जाता है, वहाँ समुच्चय अलङ्कार होता है।
तत्सिद्धिहेतावेकस्मिन् यत्रान्यत् तत्करं भवेत्। समुच्चयोऽसौ।७२
नेमिदूतम् में की गई समुच्चय अलङ्कार की सज्जा से कवि की निपुणता प्रदर्शित होती है। एक पद्य उदाहरणार्थ प्रस्तुत है -
एणांकाश्मावनिषु शिशिरे कुङ्कुमार्दैः पदाङ्कः, शीनोत्कंम्पाद्गतिविगलितैर्वालकै: केशपाशात्। भ्रष्टैः पीनस्तनपरिसराद्रोध्रमाल्यैश्च यस्यां, नैशो मार्गः सवितुरुदये सूच्यते कामिनीनाम्।।७३
'जिस द्वारिका में अभिसारिकाओं का रात्रिमार्ग सूर्य के निकलने पर शरद्काल में शीत की कँपकँपी से युक्त गति के कारण केशपाश से गिरे हुए पुष्पों से, स्थूल कुचप्रदेश से टूटकर गिरे हुए लोध्रपुष्प-हारों से तथा चन्द्रकान्तमणिमय फर्श पर कुंकुमाई चरणचिह्नों से सूचित होता है।' इस पद्य में रात्रिमार्ग के सूचक एक हेतु के विद्यमान रहने पर भी दो अन्य हेतु भी साधक हो गये हैं। अत: यहाँ समुच्चय अलङ्कार है। कवि ने नेमिदूतम् में कतिपय अन्य स्थलों पर७४ भी इस अलङ्कार का रमणीय प्रयोग किया है।
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