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नेमिदूतम् का अलङ्कार-लावण्य : ६५
नेमिदूतम् के अनेक पद्यों में रूपकालङ्कार की मनोरम अलङ्कति समाविष्ट है, यथा - 'मैक्यं प्राप्यासितरजनिषु प्रस्फुरद्रत्नदीपा:४५ में रत्नों पर दीपों का अभेदारोप, किं मामेवं विरहशिखिनोपेक्ष्यसे दह्यमानाम्'४६ में वियोग पर अग्नि का अभेदारोप तथा 'स्वामिनिर्वापय वपुरिदं स्वाङ्गसङ्गामृतेन'४७ में आलङ्गिन पर अमृत का अभेदारोप होने से निरङ्ग रूपक अलङ्कार है। अथ च, निम्नांकित काव्यांश में नदी पर वनिताओं का तथा चञ्चल मछलियों के उच्छलन पर चितवनों का भेदरहित आरोप होने से साङ्गरूपक अलङ्कार की सर्जना हुई है -
यः कामीव क्षणमपि सरित्कामिनीनां न शक्तो, मोधीकर्तुं चटुलशफरोद्वर्तनप्रेक्षितानि।।४८
अर्थान्तरन्यास - यह गम्य औपम्याश्रित अर्थालङ्कार है। उसका निरूपण करते हुए काव्यप्रकाशकार ने कहा है कि सामान्य का विशेष से अथवा विशेष का सामान्य से, साधर्म्य से अथवा वैधर्म्य से समर्थन करने को अर्थान्तरन्यास अलङ्कार कहते हैं
सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते। यत्तु सोऽर्थान्तरन्यासः साधम्र्येणेतरेण वा।। ९
नेमिदूतम् में कवि ने अर्थान्तरन्यास अलङ्कार का प्रभूत प्रयोग किया है। कतिपय स्थल उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं -
तं सम्मोहाद् द्रुतमनुनयं शैलराजं ययाचे, कामात हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु।।५०
इन पंक्तियों में 'राजीमती ने चित्र की विकलता के कारण पर्वतराज रैवतक से शीघ्र याचना की' इस विशेष कथन का, 'कामपीड़ित व्यक्ति चेतन और जड़ के विषय में दीन (विवेकशून्य) होते हैं इस सामान्य कथन से समर्थन किया गया है।
कवि के अर्थान्तरन्यास-विन्यास में लौकिक अनुभवों की अभिव्यक्ति परिलक्षित होती है, यथा -
त्वामायान्तं पथि यदुवरा: केशवाद्याः निशम्य, प्रीता बन्धूंस्तव पितृमुखान्सौहदानन्दयन्तः। साकं सैन्यै रथमभिमुखं प्रेषयिष्यन्ति तूर्णं, मन्दायन्ते न खलु सुहृदामभ्युपेतार्थकृत्याः।।५१
प्रस्तुत पद्य में ‘यदुश्रेष्ठ केशवादि मार्ग में तुम्हारे (नेमिनाथ के) आगमन को सुनकर, प्रसन्न हों, तुम्हारे पिता आदि प्रमुख जनों तथा मित्रों को सेना एवं रथ सहित भेजेंगे' इस विशेष कथन का समर्थन, 'मित्रों के कार्यों को प्रारम्भ कर देने वाले व्यक्ति
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