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श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९|| जलाई-सितम्बर २००४
नेमिदूतम् का अलङ्कार-लावण्य
____ डॉ० विनोद शर्मा* एवं श्रीमती आशा शर्मा* *
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संस्कृत-दूतकाव्यों की स्थिति को सुस्थिरता प्रदान करने में जैन-कवियों का अविस्मरणीय योगदान रहा है। जैन-दूतकाव्यों में कवि श्रीविक्रम-प्रणीत 'नेमिदूतम्' का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संस्कृत के मूर्धाभिषिक्त महाकवि कालिदास-रचित मेघदूतम् के चतुर्थ चरण की पादपूर्ति (समस्यापूर्ति) के रूप में इस दूतकाव्य की रचना हुई है। नेमिदूतम् : संक्षिप्त परिचय
नेमिदूतम् के अन्तिम पद्य में कवि ने स्वयं को ‘साङ्गण का पुत्र' (साङ्गणस्याङ्गजन्मा) कहा है।
नेमिदूतम् में कुल १२६ पद्य हैं जिनमें जैनधर्म के बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ का चरित वर्णित है। द्वारिका के यदुवंशी नृपति श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव के भाई समुद्रविजय थे। नेमिनाथ समुद्रविजय के ज्येष्ठ पुत्र थे। बाल्यावस्था से ही ये विषयविमुख थे। बारातियों के भोजन के निमित्त बँधे हुए पशुओं के आर्तनाद को सुनकर उनका हृदय द्रवित हो गया तथा वे सांसारिक बन्धनों को तोड़कर रैवन्तगिरि पर्वत पर केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिये समाधिस्थ हो गये।
नेमिकुमार के विरक्त होकर तपश्चरण के लिये चले जाने पर विरहविधुरा राजीमती एक वृद्ध ब्राह्मण को उनका कुशल समाचार लाने हेतु श्रीनेमि की तपोभूमि में भेजती है। तत्पश्चात् पिता की आज्ञा लेकर स्वयं एक सखी के साथ वहाँ पहँचकर श्रीनेमि से लौट चलने की प्रार्थना करती है। किन्तु नेमि अपने पथ से विचलित नहीं होते। अन्ततः राजीमती उनसे दीक्षा लेकर तपश्चर्या में संलग्न हो जाती है। अलङ्कार : परिभाषा एवं स्वरूप
जिन साधनों द्वारा काव्य की शोभावृद्धि की जाती है, उनमें अलङ्कार अन्यतम हैं। अलङ्कारशास्त्र में अलङ्कार को रस, भाव आदि का उपकारक तथा शब्दार्थ का शोभातिशायी अस्थिर धर्म कहा गया है। जिस प्रकार लोक में कुण्डल आदि आभूषण मानवशरीर को विभूषित करते हैं, इसलिये अलङ्कार कहलाते हैं, उसी प्रकार काव्य * प्रवक्ता ** शोध छात्रा, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, शाजापुर (म०प्र०)
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