________________
जैन आगमों में संगीत-विज्ञान : ५३
गीत के आठ गुण : गीत के आठ गुण इस प्रकार माने जाते हैं - १) पूर्ण गुण - स्वर के आरोह-अवरोह आदि से परिपूर्ण गाना। २) रक्त गुण - गेय राग से भावित/परिष्कृत गाना। ३) अलंकृत गुण - विभिन्न विशेष शुभ स्वरों से संपन्न गाना।
४) व्यक्त गुण - गीत के बोलों - स्वर - व्यंजनों का स्पष्ट रूप से उच्चारण करते हुए गाना।
५) अविघुष्ट गुण - विकृति और विशृंखलता से रहित नियत और नियमित स्वर से गाना (अर्थात् चीखते-चिल्लाते हुए न गाना)। • ६) मधुर गुण - मधुर, मनोरम, कर्णप्रिय स्वर से गाना।
७) सम गुण - सुर, ताल, लय आदि से समनुगत-संगत स्वर में गाना। ८) सुललित गुण - स्वरघोलनादि द्वारा ललित, कोमल लय से गाना। गीत के अन्य आठ गुण : गीत के आठ गुण और भी हैं, जो इस प्रकार हैं - १) उरोविशुद्ध - जो स्वर उर: स्थल में विशाल होता है। २) कंठ-विशुद्ध - जो स्वर कण्ठ में नहीं फटता।
३) शिरोविशुद्ध - जो स्वर शिर से उत्पन्न होकर भी नासिका से मिश्रित नहीं होता।
४) मृदु - जो गीत कोमल स्वर से गाया जाता है। ५) रिभित - घोलना - बहुल आलाप के द्वारा गीत में चमत्कार पैदा करना। ६) पद बद्ध - गीत को विशिष्ट गेय-पदों से निबद्ध करना।
७) समताल - प्रत्युत्क्षेप - जिस गीत में हस्त-ताल, वाद्य-ध्वनि और नर्तक का पाद-क्षेप हो अर्थात् एक-दूसरे से मिलते हों।
८) सप्त स्वर-सीभर - जिसमें सातों स्वर तंत्री आदि वाद्य-ध्वनियों के अनुरूप हों। अथवा वाद्य-ध्वनियाँ गीत के स्वरों के अनुसार हों।
सप्त स्वर-सीभर की व्याख्या : षड्ज आदि स्वर कंठोद्गत ध्वनि-वाचक हैं, यहाँ लिपि रूप अक्षरों की अपेक्षा से सात स्वर इस प्रकार माने गये हैं -
१) अक्षरसम - ह्रस्व-दीर्घ-प्लुत और सानुनासिक अक्षरों के अनुरूप गीत।
२) पदसम - स्वर के अनुरूप पदों और पदों के अनुरूप स्वरों के अनुसार गाया जाने वाला गीत।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org