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५४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४
३) तालसम - ताल वादन के अनुरूप गीत।
४) लयसम - वीण आदि को आहत करने पर जो लय उत्पन्न होती है, उसके अनुसार गाया जाने वाला गीत।
५) ग्रहसम - वीणा आदि द्वारा जो स्वर पकड़े जाते हैं, उन्हीं के अनुसार गाया जाने वाला गीत।
६) निःश्वसित - उच्छ्वसितसम - सांस लेने और छोड़ने के क्रमानुसार गाया जाने वाला गीत।
७) संचारसम - सितार आदि वाद्यों के तारों पर अंगुली के संचार के साथ गाया जाने वाला गीत।
इस प्रकार तंत्री आदि के साथ संबंधित होकर गीत स्वर सात प्रकार का हो जाता है। -
प्रत्येक स्वर सात तानों से गाया जाता है, इसलिए उनके (७ x ७ =) ४९ भेद हो जाते हैं। - . गेय पदों के आठ गुण : गेय पदों के आठ गुण इस प्रकार दर्शाए गऐ हैं
१) निर्दोष - अलीक, उपघात आदि बत्तीस दोषों से रहित होना। २) सारवंत - सारभूत विशिष्ट अर्थ से युक्त होना। ३) हेतुयुक्त - अर्थ-साधक हेतु से संयुक्त होना। ४) अलंकृत - उपमा-उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों से युक्त होना। ५) उपनीत - उपसंहार से युक्त होना।
६) सोपचार - कोमल, अविरुद्ध और अलज्जनीय अर्थ का प्रतिपादन करना। अथवा, व्यंग या हँसी से संयुक्त होना।
७) मित - अल्प पद और अल्प अक्षर वाला होना। ८) मधुर - सुश्राव्य शब्द, अर्थ और प्रतिपादन की अपेक्षा प्रिय होना।
विभिन्न अपेक्षाओं से गीत संबंधी उपर्युक्त गुण-दोषों का वर्णन करने का कारण यह है कि गायक गीत-विधाओं को जानते हुए भी यदि दोष-निराकरण और गुणसमायोजन का लक्ष्य नहीं रखता है, तो वह जनप्रिय और सम्माननीय नहीं हो पाता है।
गीत के वृत्त : गीत के वृत्त अर्थात् छन्द तीन प्रकार के होते हैं - १) सम - जिसके चारों चरण समान हों।
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