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श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४
मध्यम ग्राम की सात मूर्च्छनाएँ ये हैं -
(१) उत्तरयंदा, (२) रजनी, (३) उत्तरा, (४) उत्तरायशा अथवा उत्तरायता, (५) अश्वक्रान्ता, (६) सौवीरा, (७) अभिरुद्गता या अभीरूद्गता।
गांधार ग्राम की सात मूर्च्छनाओं के नाम इस प्रकार हैं -
(१) नन्दी, (२) क्षुद्रिका, (३) पूरिया, (४) शुद्ध गांधारा, (५) उत्तर गांधारा, (६) सुष्ठुतर आयामा और (७) उत्तरायता कोटिया।
स्वरोत्पत्ति-योनि-उच्छ्वास काल और आकार : ये सातों स्वर नाभि से उत्पन्न होते हैं। गीत की योनि (जाति) रुदन है। जितने समय में किसी छन्द का एक चरण गाया जाता है, उतना उसका (गीत का) उच्छ्वास काल होता है। गीत के तीन आकार होते हैं - आदि में मृदु, मध्य में तार (तीव्र/उच्च) और अंत में मंद।
. गीत की योनि रुदन है, शास्त्रकार के इस कथन को आधुनिक काल में हिन्दी साहित्य-जगत के विशिष्ट कवि सुमित्रानन्दन पंत ने इन शब्दों में रूपायित किया है
'वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकल कर होठों से चुपचाप, वही होगी कविता अनजान।। गीत-गायक की योग्यता :
गीतकार को गीत के गुणों और दोषों का मर्मज्ञ/ज्ञाता होना ही चाहिये। इसलिए उसकी योग्यता का निर्देश करते हुए सूत्रकार कहते हैं -
'छद्दोसे अट्ठ गुणे तिण्णि य वित्ताणि दोण्णि भणितीओ। जो णाही सो गाहिति, सुसिक्खतो रंगमज्झम्मि।।'
अर्थात् गीत के छह दोषों, आठ गुणों, तीन वृत्तों और दो भणितियों को जो जानेगा, वही सुशिक्षित (गान-कला-कुशल) गायक रंगमंच पर अच्छी तरह गायेगा।
गीत के दोष : गीत के छह दोष होते हैं, तद्यथा - १) भीत दोष - डरते हुए गाना। २) द्रुत दोष - उद्वेग-वश शीघ्रता से गाना।
३) उत्पिच्छ दोष - शब्दों को लघु बना कर जल्दी-जल्दी गाना अथवा असमय में सांस लेना।
४) उत्ताल दोष - ताल-विरुद्ध गाना। ५) काकस्वर दोष - कौए के समान कर्णकटु स्वर में गाना। ६) अनुनास दोष - नाक से स्वरों का उच्चारण करते हुए गाना।
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