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श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४
उनकी उदीरणा तेरहवें गुणस्थान तक ही होने का नियम है। चौदहवें में उदीरणा नहीं होती है।
सत्ता की दृष्टि से विचार किया जाये तो तीर्थङ्कर प्रकृति की सत्ता प्रथम गुणस्थान एवं चौथे से चौदहवें गुणस्थान तक पायी जाती है।३४ प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में तो बद्धनरकायष्क वाले जीव की अपेक्षा से पायी जाती है, क्योंकि जिस जीव ने नरकायु का बंध करने के पश्चात् तीर्थङ्कर नामकर्म का बंध प्रारम्भ किया है, वह जीव नरक के भव में जाते समय एवं वहाँ अपर्याप्त समय तक मिथ्यात्वदशा में रहता है। तथापि तीर्थङ्कर नामकर्म की सत्ता उस जीव के पायी जाती है। चौथे से आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक तो तीर्थङ्कर नामकर्म का बंध होने के कारण इन गुणस्थानों में सत्ता रहती ही है, किन्तु उपशमश्रेणि करते समय भी आठवें गणस्थान के छठे भाग से ग्यारहवें गुणस्थान तक तीर्थङ्कर नामकर्म की सत्ता रहती है, क्योंकि यह काल मात्र अन्तर्मुहूर्त का होता है एवं पूर्वबद्ध तीर्थङ्कर प्रकृति तो उस काल में भी सत्ता में रहती ही है। इसी प्रकार बारहवें क्षीणमोहनीय गुणस्थान में भी इस प्रकृति की सत्ता पूर्वबद्ध की अपेक्षा से रहती है, क्योंकि सत्ता में रहने पर ही कोई कर्म उदय में आता है।
यह उल्लेखनीय है कि तिर्यंचगति के जीव में तीर्थङ्कर नाम कर्म की सत्ता नहीं पायी जाती है, क्योंकि तीर्थङ्कर नामकर्म का बंध करने वाला जीव तिर्यंच गति में नहीं जाता है। इसका भी कारण यह है कि तीर्थङ्कर नामकर्म को बाँधने वाला जीव (पूर्व निर्दिष्ट दो अपवादों को छोड़कर) निरन्तर इस प्रकृति का बंध करता है एवं वह बद्धनरकायु के अपवाद को छोड़कर चौथे गणस्थान से नीचे नहीं आता है। इसलिए तीर्थङ्कर नामकर्म को बाँधने वाला जीव तिर्यंच गति का बंध नहीं कर पाता। तिर्यंच गति का बंध प्रथम एवं द्वितीय गुणस्थान में ही होता है, उसके पश्चात् नहीं। दूसरी बात यह भी है कि तिर्यंचायु का बंध कर लेने वाला तीर्थकर नामकर्म का बन्ध नहीं करता। तीसरी एवं महत्त्वपूर्ण बात यह है कि तीर्थङ्कर नामकर्म के बंध का प्रारम्भ मनुष्य गति में ही होता है, तिर्यंचादि अन्य गतियों में नहीं। मनुष्य से वह जीव नरक या देवगति में जाता है। इसलिए इन तीन गतियों में तीर्थङ्कर नामकर्म की सत्ता रहती है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि आचार्यों के अनुसार तीर्थङ्कर प्रकृति का अनिकाचित बन्ध करने वाला जीव तिर्यंचगति में भी जा सकता है३५ तथा इस प्रकृति की उद्वेलना भी हो सकती है।
तीर्थङ्कर नामकर्म की उत्कृष्ट स्थिति अन्त: कोटाकोटि सागरोपम एवं अबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त बताया गया है।३६ अत: यह प्रकृति अपनी सजातीय प्रकृतियों में संक्रमित होकर भोगी जाती है। इसी प्रकार इस प्रकृति का उद्वर्तन एवं अपवर्तन भी स्वीकार किया गया है। पंचम कर्मग्रन्थ, कम्मपयडी एवं पंचसंग्रह के अनुसार
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