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श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४
भगवतीआराधना में भी मरण के निम्न सत्रह प्रकारों का विवेचन किया गया है। संवेगरंगशाला एवं भगवतीआराधना में मरण के इन सत्रह प्रकारों में सामान्य तौर पर तो समानता ही दृष्टिगोचर होती है, लेकिन कहीं-कहीं कुछ में एवं उनकी क्रम संख्या में कुछ विभिन्नता भी दिखाई देती है।
___ उदाहरणस्वरूप भगवतीआराधना में अवधिमरण के दो विभाग देशावधिमरण और सर्वावधिमरण मिलते हैं, लेकिन संवेगरंगशाला में अवधिमरण का इस तरह से स्पष्ट वर्गीकरण नहीं हुआ है। संवेगरंगशाला में छद्मस्थ मरण का उल्लेख है, जबकि भगवतीआराधना में इस नाम के किसी मरण का उल्लेख नहीं मिलता है। भगवतीआराधना में आसण्णमरण की चर्चा है, जिसका विवरण संवेगरंगशाला में नहीं है। इन विभिन्नताओं के अतिरिक्त मरण के प्रकारों के सम्बन्ध में कोई अन्य अन्तर परिलक्षित नहीं होता है।
संवेगरंगशाला के परवर्ती ग्रन्थों में हमें आचार्य नेमिचन्द्र के प्रवचनसारोद्धार में भी संवेगरंगशाला के समान ही मरण के १७ भेदों का उल्लेख उपलब्ध होता है। इस मरण के सत्रह भेदों की यह चर्चा आगम काल से लेकर ईसा की सोलहवीं शती तक निरंतर रूप से जैनधर्म के सभी सम्प्रदायों के ग्रन्थों में उपलब्ध होती है। सन्दर्भ : १. समवायांगसूत्र १७/१२१. २. भगवतीआराधना, गाथा २५. ३. प्रवचनसारोद्धार, गाथा १००६-१०१७.
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