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सुना फूटता है।
जैन आगमों में संगीत - विज्ञान
श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९ जुलाई-सितम्बर २००४
सदा-सदा से ही मनुष्य संगीत, प्रेमी रहा है। युगलिया काल में (जब सभ्यता की शुरुआत भी नहीं हुई थी, तब ) भी मनुष्य तूर्यांग जाति के कल्पवृक्षों से वादित्र प्राप्त कर संगीत सुनता था (समवायांग सूत्र, समवाय १०, पृ० २१ - २४, ब्यावर ) । सभ्यता का प्रारंभ होने के बाद तो उसने अपने लिए न जाने कितने वाद्य यंत्र बना लिए, कितनी ही राग-रागिनियों का आविष्कार कर लिया।
साध्वी डॉ० मंजुश्री *
है, आज भी कई जंगलों में ऐसी वनस्पतियाँ हैं जिनसे रात्रि में संगीत
मनुष्य ने पत्थरों में भी संगीत ढूंढा है। दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान कई पत्थरों में से निकने वाली संगीत की ध्वनियों को हमने भी सुना है। हम्पी शहर (कर्नाटक) मुख्य मंदिर में लगे हुए स्तम्भों को बजाने पर उनमें से भी अलग-अलग स्वरलहरियाँ निकलती हैं।
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वायु भी जब स्वस्थ और प्रसन्न होती है, तो उसमें से भी प्रवाहित होता संगीत हमने सुना है।
कल-कल करती नदियों और झर-झर झरते निर्झरों का संगीत तो सर्व-जनप्रसिद्ध है ही ।
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शंखों की मधुर चटकार, झल्लरियों की झनकार, भौरों का गुंजार, कोयल की कुहुक, पक्षियों की चहक प्रकृति के सुरम्य वातावरण में संगीत का रस घोलती ही है। वनस्पति, पृथ्वी, वायु, जल एवं द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तिर्यंचों के उक्त स्वरों को सुर देने का कार्य संसार के सर्वश्रेष्ठ प्राणी 'मनुष्य' ने किया है। संगीतकला-विज्ञानी मनुष्यों ने इन सुरों को सात स्वरों में वर्गीकृत करते हुए इनकी व्यापकता और गहराई को समझाने का श्लाघ्य / महान् कार्य किया है।
सप्त स्वर - विवेचना: जैनागमों में भी संगीत कला को स्त्रियों की ६४ कलाओं के अन्तर्गत विशेष स्थान प्राप्त है। आगमों में यत्र-तत्र संगीत-संबंधी विवरण उपलब्ध होते हैं। यहाँ उनकी विस्तृत विवेचना संभव नहीं है। यहाँ तो हम सिर्फ * श्री चन्द्रसेन जैन, जी- २३, म०नं० १५, सेक्टर- ७, रोहिणी - दिल्ली - ८५
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