Book Title: Sramana 2004 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 28
________________ कर्म-साहित्य में तीर्थङ्कर : २३ तीर्थङ्कर प्रकृति अध्रुवबन्धिनी, अध्रुव सत्ताक, अघाती, पुण्य प्रकृति, अपरावर्तमान, जीव विपाकी, स्वानुदयबन्धिनी, क्रम व्यवच्छिद्यमान बंधोदया, निरन्तरबन्धिनी, अनुदय-संक्रमोत्कृष्टा एवं उदयवती है। सन्दर्भ : १. ३४ अतिशयों के लिए द्रष्टव्य-समवायांगसूत्र, समवाय ३४. २. समवायांगसूत्र, समवाय ३५. ३. इमं च णं सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं। - प्रश्नव्याकरणसूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, अध्ययन १. ४. गोयमा! अरहा ताव नियमं तित्थगरे। - व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक २०, उद्देशक ८. ५. श्रमण भगवान् महावीर के पाँच कल्याणकों का उल्लेख स्थानांगसूत्र में हुआ है। द्रष्टव्य - स्थानाङ्गसूत्र, स्थान ५, उद्देशक १. ६. धवला, ६.१ ७. आर्हन्त्यकारणं तीर्थङ्कर त्वनाम। - सर्वार्थसिद्धि, ८.११, पृ० ३०६ (भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली १९९१) ८. विशेषावश्यकभाष्य, पृ० १- दिव्यदर्शन ट्रस्ट, मुम्बई, विक्रम संवत् २०३९. ९. विशेषावश्यकभाष्य, मलधारी हेमचन्द्र टीका, पृ० १ - दिव्यदर्शन ट्रस्ट, मुम्बई। १०.तित्थं पुण चाउव्वण्णाइण्णो समणसंघो, तंजहा - समणा समणीओ, सावगा साविगाओ। - व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, शतक २०, उद्देशक ८, सूत्र १४ ११.विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य - त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् (आचार्य हेमचन्द्र विरचित) १२. अरिहंत-सिद्ध-पवयण-गुरु-थेर-बहुस्सुए-तवस्सीसुं। वच्छल्लया एएसिं, अभिक्खनाणोवओगे ये ॥१॥ दसण-विणए आवस्सए य सीलव्वए निरइआरो। खणलव-तवच्चियाए, वेयावच्चे समाही य ।।२।। अप्पुव्वनाणगहणे, सुयभत्ती पवयणे पभावणया। एएहिं कारणेहिं, तित्थ्यरत्तं लहइ जीवो ।।३।। - ज्ञाताधर्मकथाङ्ग, अध्ययन ८; आवश्यकनियुक्ति, गाथा - १७९-१८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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