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कर्म - साहित्य में तीर्थङ्कर : २१
प्रकृति का बन्धन हो सकता है। धवला टीका में एक प्रश्न उठाया गया कि तिर्यंचायु बाँधने वाले को सम्यक्त्व प्राप्त होने के पश्चात् तीर्थंकर प्रकृति बाँधने में क्या बाधा है ? इसका उत्तर देते हुए कहा गया कि जिस भव में तीर्थङ्कर प्रकृति का बंध प्रारम्भ किया है, उससे तृतीय भव में तीर्थङ्कर प्रकृति की सत्ता वाले जीवों के मोक्ष जाने का नियम है, २७ जो देव एवं नारकी बनने पर ही सम्भव हो सकता है। तृतीय भव में मोक्ष जाने का कथन श्वेताम्बर परम्परा में भी उपलब्ध है । २८
(५) तीर्थङ्कर प्रकृति का सम्बन्ध लेश्याओं से भी है। तेजो, पद्म एवं शुक्ल नामक शुभ लेश्याओं में तो तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध हो ही सकता है, किन्तु अशुभ लेश्याओं में से एक मात्र कपोत लेश्या ही ऐसी है, जिसमें तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध हो सकता है । यह तथ्य महाबंध, धवला आदि ग्रन्थों में स्पष्ट प्रतिपादित हुआ है कि नरकगति वाला जीव नील एवं कृष्ण लेश्याओं में तीर्थङ्कर नामकर्म का बंध नहीं करता है । तीसरी नरक में कापोतलेश्यी को ही आगामी भव में तीर्थङ्कर बनने का उल्लेख मिलता है। महाबन्ध के काल-प्ररूपणा-खण्ड में तीर्थङ्कर की आगति में वैमानिक से जो जीव आता है उसमें तेजो, पद्म एवं शुक्ल लेश्याएँ बतायी गई हैं तथा नरक से जो जीव आता है, उसमें एक मात्र कापोत लेश्या बतायी गई है । २९ श्वेताम्बर परम्परा में तीर्थङ्कर की आगति में इन चार लेश्याओं के अतिरिक्त नील लेश्या का भी कथन किया जाता है, ३० जिसका पुष्ट कारण ध्यान में नहीं आता । विद्वज्जन इस पर विचार करें।
(६) नरक एवं देवलोक के असंख्यात जीव इस समय भी तीर्थङ्कर नाम कर्म का बन्ध कर रहे हैं। महाबंध में स्पष्ट कहा है - 'तित्थयराणं बंधगा असंखेज्जा' । ३१ अर्थात् तीर्थङ्करों के बंधक असंख्यात हैं।
(७) गोम्मटसार में कहा गया है कि तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध तो स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक - तीनों वेदों में हो सकता है, किन्तु उदय केवल पुरुषवेद में ही होता है। ३२ ध्यातव्य है कि स्त्री का तीर्थङ्कर होना श्वेताम्बरों ने ही मान्य किया है । ३३ इसका उदाहरण मल्ली भगवती हैं।
उदय के सम्बन्ध में यह निर्विवाद रूप से मान्य है कि तीर्थङ्कर प्रकृति का उदय तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थान में होता है। अतः जन्म लेते ही कोई तीर्थङ्कर नहीं बन जाता है। चार घाती कर्मों का क्षय करने के साथ ही तेरहवें गुणस्थान में तीर्थङ्कर प्रकृति का उदय होता है। यह बात अवश्य है कि इस प्रकृति का जिस भव में उदय होने वाला है, उसका गर्भ - प्रवेश के साथ ही प्रारम्भ हो जाता है। तीर्थङ्कर की माता के द्वारा चौदह या सोलह स्वप्न देखना इसी का प्रतीक है।
तीर्थङ्कर नामकर्म की उदीरणा भी सम्भव है, किन्तु यह उदीरणा मात्र तेरहवें गुणस्थान में ही होती है। चौदहवें गुणस्थान में जिन प्रकृतियों का उदय रहता है,
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