Book Title: Sramana 2004 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 25
________________ २० : श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४ (अ) पहले नरकायु बाँधने के पश्चात् क्षायोपशम सम्यग्दृष्टि प्राप्त करके कोई जीव यदि तीर्थङ्कर नाम प्रकृति को बाँधना प्रारम्भ करता है, तो वह मनुष्य भव के अन्तिम अन्तर्महुर्त में सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व में चला जाता है।२३ मिथ्यात्व गुणस्थान में रहता हुआ वह तीसरी नरक तक में जन्म ले सकता है। वहाँ पर्याप्त अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् वह पुनः सम्यग्दर्शनी बन जाता है। मनुष्यगति से जाने एवं नरक में अपर्याप्त रहने का यह काल भी अन्तर्मुहूर्त परिमाण होता है। इतने काल के लिए तीर्थङ्कर प्रकृति का बँधना रुक जाता है। शेष सभी समय यह प्रकृति निरन्तर बँधती रहती है। ।। रहता हा (ब) तीर्थङ्कर नामकर्म को बाँधता हुआ जीव उपशमश्रेणि में चढ़ता है, तो वह आठवें गुणस्थान के सातवें भाग से ग्यारहवें गुणस्थान तक उपशम श्रेणि के समय तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध नहीं करता है। यह अवस्था भी एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नहीं होती। इस तरह दो अपवादों को छोड़कर तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध एक बार प्रारम्भ होने के पश्चात् निरन्तर होता रहता है। (२) तीर्थङ्कर प्रकृति का उत्कृष्ट स्थिति बन्ध चौथे गुणस्थान में तब होता है, जब क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी जीव मिथ्यात्व के अभिमुख हो। मिथ्यात्व के अभिमुख वह जीव होता है, जिसने पहले ही नरक का आयुष्य बाँध लिया हो। ऐसा जीव ही तीर्थङ्कर प्रकृति का उत्कृष्ट बंध करता है। किसी भी कर्म की उत्कृष्ट स्थिति संक्लेश (कषायवृद्धि) से बँधती है। चाहे वह पुण्य प्रकृति हो या पाप प्रकृति। सभी प्रकृतियों की स्थिति कषाय से बँधती है। अत: तीर्थङ्कर नामक पुण्य प्रकृति की उत्कृष्ट स्थिति का बंध उस अविरतसम्यग्दृष्टि जीव के होता है, जो मिथ्यात्व के अभिमुख हो।२४ तीर्थङ्कर प्रकृति का जघन्य स्थितिबंध आठवें गुणस्थान के छठे भाग में होता है, क्योंकि वह विशुद्ध अवस्था होती है। (३) तीर्थङ्कर प्रकृति बंधने का नरकगति एवं तिर्यंच गतियों के बन्ध के साथ विरोध है।२५ अर्थात् तीर्थंकर प्रकृति बंधने के पश्चात् ये दोनों गतियाँ नहीं बँधती हैं। पहले ही किसी जीव ने नरकायु बाँध लिया हो, यह तो सम्भव है, किन्तु तीर्थङ्कर प्रकृति बँधने के पश्चात् नरकायु का बन्धन भी सम्भव नहीं है। नरक गति एवं तिर्यंच गति तो क्रमश: पहले एवं दूसरे गणस्थान में ही बँधती है। तीर्थङ्कर प्रकति बाँधने वाले जीव के केवल देवगति बँधती है। यह उल्लेखनीय है कि देवी तीर्थङ्कर नहीं बनती हैं, अत: तीर्थङ्कर प्रकृति बाँधने वाला देव ही बनता है, देवी नहीं।२६ वह तीन किल्विषिक को छोड़कर वैमानिक देव में जा सकता है। (४) जिस जीव ने पहले मनुष्यायु एवं तिर्यंचायु का बन्ध कर लिया है, उसके तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध नहीं होता है, किन्तु देवायु एवं नरकायु बाँधने के पश्चात् तीर्थङ्कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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