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श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४
आवश्यकसूत्र के छ: अध्ययन हैं - सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान। सामायिक आवश्यकसूत्र का प्रथम अध्ययन है। जैन आचार में श्रमण के पाँच चारित्र, तो गृहस्थ साधकों के चार शिक्षाव्रतों में प्रथम शिक्षाव्रत-सामायिक नैतिक साधना का अथ और इति दोनों है। वस्तुत: सामायिक समत्व-साधना है। समत्व-साधना में साधक जहाँ बाह्य रूप में हिंसक प्रवृत्तियों का परित्याग करता है, वहीं आन्तरिक रूप में सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव एवं सुखदुःख, लाभ-हानि प्रभृति में समभाव रखता है। लेकिन इन दोनों से भी ऊपर वह अपने विशुद्ध रूप में आत्म-साक्षात्कार का प्रयत्न है। जैन विचारणा में 'सम' शब्द का अर्थ श्रेष्ठ और अयन का अर्थ आचरण स्वीकार किया गया है। इस तरह से श्रेष्ठ आचरण ही सामायिक है। मन, वचन व काय की दुष्ट वृत्तियों को रोककर अपने निश्चित लक्ष्य की ओर ध्यान को केन्द्रित कर देना सामायिक है।
जैन धर्म में सामायिक का प्रभूत महात्म्य है। यह आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से लेकर महावीर तक सभी के द्वारा उपदेशित हुआ है। महावीर के पूर्व के तीर्थंकरों ने इसका उपदेश सामायिक संयम के रूप दिया था तथा केवल अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण करना आवश्यक बतलाया था। भगवान् पार्श्वनाथ ने तीर्थंकर ऋषभदेव की सर्वस्व-त्याग रूप आकिञ्चन मुनिवृत्ति, नमि की निरीहता वा नेमिनाथ की अहिंसा को आधार बनाकर जिस चातुर्याम धर्म का निरूपण किया, वही जैन परम्परा में सामायिक धर्म के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। आचारांग में निरूपित है - महावीर ने भी प्रव्रजित होने पर सर्वप्रथम पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिष्ठित चातुर्याम रूप सामायिक धर्म को ग्रहण किया।११ तत्पश्चात् केवलज्ञानी होने पर छेदोस्थापना संयम का विधान किया।१२ मोहन लाल मेहता द्वारा रचित, जैन साहित्य का बृहद इतिहास भाग३ के अन्तर्गत आवश्यकनियुक्ति में अन्याय विषयों के साथ भगवान् ऋषभदेव का चरित्र भी निरूपित हुआ है। यहाँ पर सामायिक अध्ययन की विवेचना में निर्यक्तिकार बतलाते हैं कि सामायिक के निर्गमद्वार की चर्चा के समय भगवान् महावीर के पूर्व भव की चर्चा का प्रसंग आता है, जिसमें कि उनके मरीचि जन्म की चर्चा आवश्यक रूप से की गई है। इसी प्रसंग में भगवान् ऋषभदेव की भी चर्चा हुई है, क्योंकि मरीचि की उत्पत्ति ऋषभदेव से है।१४ यदि उक्त तथ्यों पर दृष्टिपात करें तो यह निष्कर्ष निःसृत होता है कि सामायिक महावीर के शासनकाल में था और साथ ही आदि तीर्थंकर ऋषभदेव व उनके पश्चात्वर्ती तीर्थंकरों के शासनकाल में भी था। अर्थात् सामायिक जैनधर्म के उद्भव काल से ही आस्तित्ववान है।
आवश्यकसूत्र का द्वितीय अध्ययन 'चतुर्विंशतिस्तव' है। इसमें साधक सावध योग से निवृत्त होकर अवलम्बन स्वरूप चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करता है। इससे
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