________________
३० : श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९/जुलाई-सितम्बर २००४
केवल अतीतकाल में लगे दोषों की परिशुद्धि नहीं करता, प्रत्युत वह वर्तमान तथा भविष्य के दोषों की भी परिशुद्धि करता है।१६ जैनविचारणानुसार इसका इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि, आवश्यक हारिभद्रीयवृत्ति, आवश्यक-मलयगिरिवृत्ति प्रभृति ग्रन्थों में प्रतिक्रमण के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन सम्प्राप्त होता है। मूलाचार में निर्दिष्ट है - भगवान् महावीर से पूर्व के तीर्थंकरों ने सामायिक संयम का उपदेश दिया तथा केवल अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण करना आवश्यक बतलाया था। लेकिन भगवान् महावीर ने सामायिक धर्म के स्थान पर छेदोपस्थापना संयम निर्धारित किया और प्रतिक्रमण नियम से करने का उपदेश दिया।१७ ऐसा ही निरूपण भगवती, उत्तराध्ययन प्रभृति आगमों में तथा तत्त्वार्थसूत्र (९, १८) की सिद्धसेनीय टीका में प्राप्त होता है।१८
आवश्यकसूत्र में प्रतिक्रमण के पश्चात् कायोत्सर्ग आवश्यक का विधान अभिहित है। कायोत्सर्ग का शब्दिक अर्थ है काय का त्याग। यहाँ पर काय-त्याग से तात्पर्य है शारीरिक चंचलता एवं देहाशक्ति का त्याग। कायोत्सर्ग में गहराई से चिन्तन कर उन दोषों को क्षय करने का उपक्रम किया जाता है, जो प्रतिक्रमण में शेष रह जाते हैं। इसमें साधक बहिर्मुखी स्थिति से निकलकर अन्तर्मुखी स्थिति में पहुँचता है। इसका प्रधान उद्देश्य है - आत्मा का सानिध्य प्राप्त करना और सहज गुण है मानसिक संतुलन को बनाए रखना। इसका भी इतिहास प्राचीन है, लेकिन क्या यह महावीर के पूर्व अस्तित्ववान था? और था तो कब था? इस सम्बन्ध में कुछ भी कहना कठिन है। यहाँ पर यह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि यह महावीर के काल में था, क्योंकि आचारांग, स्थानांग, उत्तराध्ययन, आवश्यकसूत्र प्रभृति आगमसाहित्य व मूलाराधना, कायोत्सर्गशतक आदि में इसका निरूपण है।
आवश्यकसूत्र का छठा व अन्तिम अध्ययन प्रत्याख्यान आवश्यक है। प्रत्याख्यान का अर्थ है - त्याग करना। अर्थात् मर्यादा के साथ अशुभ योग से निवृत्ति और शुभ योग में प्रवृत्ति का आख्यान करना प्रत्याख्यान है। यद्यपि सामायिक, चतर्विंशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण तथा कायोत्सर्ग द्वारा आत्मशुद्धि की जाती है, तथापि अन्तर्मानस में आसक्ति के प्रवेश का भय उपस्थित रहता है। एतदर्थ आवश्यकसूत्र में प्रत्याख्यान का विधान अभिहित है। आचार्य भद्रबाहु१९ ने कहा हैप्रत्याख्यान से संयम होता है। संयम से आस्रव का निरुन्धन होता है और आस्रव के निरुन्धन से तृष्णा का क्षय हो जाता है। तृष्णा के क्षय से उपशम भाव समुत्पन्न होता है और उससे प्रत्याख्यान विशुद्ध होता है।२° उपशम भाव की विशुद्धि से चारित्र धर्म प्रकट होता है। चारित्र से कर्म निजीर्ण होते हैं जिससे केवलज्ञान, केवल दर्शन का दिव्यालोक देदीप्यमान होने लगता है और शाश्वत मुक्ति रूपी सुख प्राप्त होता है।२१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org