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आवश्यकसूत्र का स्रोत एवं वैशिष्ट्य : २९ साधक की आध्यात्मिक शक्ति विकसित होती है, उसकी साधना का मार्ग सुगम होता है और वह संयम क्षेत्र में दृढ़तर होता चला जाता है। 'चतुर्विंशतिस्तव' से दर्शन की वृद्धि होती है, श्रद्धा परिमार्जित होती है और सम्यक्त्व विशुद्ध होता है। उपसर्ग व परीषहों की सहन करने की शक्ति विकसित होती है व तीर्थंकर बनने की प्रेरणा मन में उठती होती है। जैन विचारणानुसार साधना के आदर्श तीर्थंकर या सिद्ध पुरुष किसी उपलब्धि की अपेक्षा को पूरा नहीं करते हैं, प्रत्युत वे मात्र साधना के आदर्श हैं, जिसका अनुसरण कर साधक आत्मोत्कर्ष तक पहुँच सकता है। अर्थात् स्तवन का मूल्य आदर्श को उपलब्ध कराने वाले महापुरुषों की जीवन गाथा के स्मरण द्वारा साधना के क्षेत्र में प्रेरणा प्रदान करना है। ___आवश्यकसूत्र का तृतीय अध्ययन वंदन है। जैन-धर्म में साधना के आदर्श रूप में तीर्थंकरों की उपासना के पश्चात् साधना मार्ग के पथ-प्रदर्शक गुरु के विनय का विधान अभिहित है। जैन-धर्म की दृष्टि से साधक में द्रव्य-चारित्र और भाव-चारित्र दोनों ही आवश्यक हैं। गुरु को ऐसा होना चाहिए कि जिसका द्रव्य और भाव दोनों ही चारित्र निर्मल हो, व्यवहार और निश्चय दोनों ही दृष्टियों से जिसके जीवन में पूर्णता हो, वही सद्गुरु वन्दनीय और अभिनन्दनीय है। साधक को ऐसे ही सद्गुरु से पवित्र प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए। वन्दन में ऐसे ही सद्गुरु को नमन करने का विधान है। वंदन के फलस्वरूप गुरुजनों से सत्संग का लाभ होता है। सत्संग से शास्त्र-श्रवण, शास्त्र-श्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान और फिर क्रमश: प्रत्याख्यान, संयम-अनाव, तप, कर्मनाशद्र अक्रिया एवं अन्त में सिद्धि की उपलब्धि होती है। वंदन यथार्थ रूप में सम्पन्न हो, इसके लिए आवश्यक है कि वंदन के समय साधक के अन्तर्मानस में किसी भी प्रकार की स्वार्थ भावना/आकांक्षा/भय अथवा अन्य किसी प्रकार के अनादर की भावना विद्यमान नहीं रहनी चाहिए। जिनको वन्दन किया जाय उनको समुचित सम्मान प्रदान करें। उस समय साधक के मन, वचन और काय में एकरसता होनी चाहिए।
आवश्यकसूत्र का चतुर्थ अध्ययन प्रतिक्रमण है। इसमें उस साधना का विधान अभिहित है जिसमें साधक अपनी मर्यादाओं का अतिक्रमण कर मर्यादा विहीन अवस्था में अथवा स्वभाव-दशा से च्युत होकर विभावदशा में प्रवेश कर जाता है, तब उसका पुन: स्वभाव रूपी सीमा में प्रत्यागमन करना प्रतिक्रमण है। जो पाप मन, वचन व काय से सम्पन्न हुए हों, दूसरे से करवाये गए हों और दूसरों के द्वारा किए गए पापों को अनुमोदित किया गया हो - की निवृत्ति हेतु किए गए समस्त पापों की आलोचना करना प्रतिक्रमण है। योगशास्त्र में निर्दिष्ट है - शुभ योगों में से अशुभ योगों में गए हुए अपने आप को पुनः शुभ योगों में लौटा लाना ‘प्रतिक्रमण' है।१५ 'प्रतिक्रमण'
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