Book Title: Sramana 2004 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 36
________________ आवश्यक सूत्र का स्रोत एवं वैशिष्ट्य : ३१ श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में श्रमणों हेतु पूर्वोक्त वर्णित षडावश्यक का विधान अभिहित है। दोनों ही परम्पराओं में अन्तर केवल उनके क्रम को लेकर है | दिगम्बर परम्परानुसार इनका क्रम इस प्रकार है- सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग । जबकि श्वेताम्बर परम्परानुसार इनका क्रम इस तरह है - सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमणं, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान। जैन परम्परा में केवल श्रमणों हेतु ही षडावश्यक का विधान अभिहित नहीं हुआ है, प्रत्युत श्रावकों हेतु भी इसका विधान है और जिसे षट्कर्म की संज्ञा है। श्रावकों के आवश्यक षट्कर्म इस प्रकार हैं - १. देवपूजा (तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का पूजन अथवा उनके आदर्श स्वरूप का चिन्तन एवं गुणगान ), २. गुरु-स - सेवा श्रावक का द्वितीय कर्तव्य है (गुरु की सेवा करना, भक्तिपूर्वक उनका वंदन करना, उनका सम्मान करना और उनके उपदेशों का श्रवण करना), ३. स्वाध्याय (आत्मस्वरूप का चिन्तन और मनन और साथ ही आत्मस्वरूप का निर्वचन करने वाले आगमग्रन्थों का पठन-पाठन), ४. संयम ( श्रावक द्वारा अपनी वासनाओं और तृष्णाओं पर संयम रखना), ५. तप (श्रावक को यथासंभव अनशन, रस- परित्याग प्रभृति के रूप में प्रतिदिन तप करना चाहिए) और ६. दान (प्रत्येक श्रावक को प्रतिदिन श्रमण, स्वधर्मी बन्धुओं और असहाय एवं दुःखीजनों को कुछ न कुछ दान अवश्य करना चाहिए) २२ आवश्यक सूत्र ऐसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जिस पर सर्वाधिक व्याख्या साहित्य उपलब्ध हैं। इसके मुख्य व्याख्या साहित्य निम्नवत् हैं - निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, स्तवक (टब्बा) और हिन्दी विवेचन। आवश्यकसूत्र की सर्वाधिक प्राचीन व्याख्या आचार्य भद्रबाहुकृत प्राकृत में नियुक्ति के रूप में प्राप्त होती है। इसमें ८८० गाथाएं इसमें सर्वप्रथम भूमिका के रूप में उपादघात् है। प्रथम पाँच प्रकार के ज्ञान के विवेचन के पश्चात् षडावश्यक का प्रतिपादन हुआ है । षडावश्यक में सर्वप्रथम सामायिक की विवेचना हुई है। उन्होंने इस पर नय दृष्टि से चिन्तन करने के पश्चात् चतुर्विंशतिस्तव का नाम प्रभृति छः निक्षेपों से निरूपण किया है। तत्पश्चात् वन्दन, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान का निरूपण है। आवश्यकनिर्युक्ति के अन्तर्गत श्रमण जीवन को तेजस्वी - वर्चस्वी बनाने हेतु जो भी नियमोपनियम हैं, उनका विस्तृत रूप में विवेचन हुआ है। साथ ही इसमें प्राचीन ऐतिहासिक तथ्यों का विवेचन समाविष्ट है। प्राकृत में ग्रथित आवश्यकनिर्युक्ति की व्याख्या शैली अत्यन्त ही गूढ़ और संक्षिप्त होने से इसके गंभीरतम रहस्यों के प्रकटन हेतु विस्तार से प्राकृत भाषा में जो पद्यात्मक व्याख्याएं रची गयीं, वस्तुतः वही विशेषावश्यक भाष्य की संज्ञा से सुप्रसिद्ध है । आवश्यकसूत्र के भाष्यकार आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (वि०सं० ६५० के आस-पास ) हैं । इन्होंने आवश्यक सूत्र पर पूर्व में संक्षेप में लिखित मूलभाष्य व भाष्य की अधिकतर गाथाओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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