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संवेगरंगशाला में प्रतिपादित मरण के सत्रह प्रकार : ४५ निश्चय से आराधक नहीं होते हैं। अन्त समय में उनके दर्शन, ज्ञान और चारित्र शल्ययुक्त होने से उनका मरण अन्तःशल्यमरण कहलाता है।
(७) तद्भवमरण :- संवेगरंगशाला के अनुसार जो जीव अन्तस् में शल्य रखकर मरण को प्राप्त होता है, वह जीव महाभयंकर संसार अटवी में लम्बे समय तक परिभ्रमण करता है। तत्पश्चात् पुन: मनुष्य अथवा तिर्यंच भव के योग्य आयुष्यकर्म को बांधकर मरने वाले मनुष्य एवं तिर्यंच का मरण तद्भव मरण कहलाता है।
(८) बालमरण :- जिनचन्द्रसूरि अपनी कृति संवेगरंगशाला में बालमरण का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि तप, नियम, संयमादि से रहित अविरत जीवों की मृत्यु को बालमरण कहते हैं।
(९) पण्डितमरण :- संवेगरंगशाला में यम, नियम, संयम आदि सर्वविरतियुक्त जीव की मृत्यु को पण्डितमरण कहते हैं।
(१०) बालपण्डितमरण :- संवेगरंगशाला में बालपण्डितमरण पर प्रकाश डालते हए कहा गया है कि देशविरति को स्वीकार करके जो जीव मृत्यु को प्राप्त होता है, उसका मरण बालपण्डितमरण कहलाता है।
(११) छद्मस्थमरण :- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन: पर्यवज्ञान से युक्त छद्मस्थ का मरण छद्मस्थमरण कहलाता है।
(१२) केवलीमरण : - जो जीव केवलज्ञान प्राप्त करके मृत्यु को प्राप्त होता है उसके मरण को केवलीमरण कहते हैं।
(१३) बेहायस (वैरदानस) मरण :- जो जीव गले में फांसी आदि लगाकर मरण को प्राप्त होता है उस मरण को संवेगरंगशाला में वेहायस (वैखानस) मरण कहा गया है।
(१४) गृद्धपृष्ठमरण :- संवेगरंगशाला के अनुसार जो जीव गृद्धादि के भक्षण द्वारा मरण को प्राप्त होता है, तो उस मरण को गृद्धपृष्ठमरण कहा गया है।
(१५) भक्तपरिज्ञामरण :- संवेगरंगशाला में भक्तपरिज्ञामरण पर प्रकाश डालते हुए यह निरूपित किया गया है कि जीव ने इस संसार में अनादिकाल से आहार ग्रहण किया है, फिर भी इस जीव को आहार से तृप्ति नहीं हुई। इस जीव को उसके प्रति इतनी रुचि है - जैसे पहले कभी उसका नाम सुना नहीं हो अथवा उसे देखा नहीं हो, अथवा कभी खाया नहीं हो अथवा उसे प्रथम बार ही मिला हो। इस प्रकार वह आहार के प्रति लालायित बना रहता है। किन्तु जिस आहार के प्रति यह जीव बना है, वह अशुचित्य आदि अनेक प्रकार के विकारों को उत्पन्न करने वाला है। उसकी
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