Book Title: Sramana 2004 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 31
________________ श्रमण, वर्ष ५६, अंक ७-९ जुलाई-सितम्बर २००४ आवश्यकसूत्र का स्रोत एवं वैशिष्ट्य अनिल कुमार सोनकर* तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट एवं गणधरों द्वारा ग्रथित जैनागम साहित्य के अन्तर्गत चार मूलसूत्रों में से द्वितीय मूलसूत्र आवश्यक एक मुख्य नियम है जो आत्मा को विशुद्ध बनाकर धर्म में प्रतिष्ठित करता है। वस्तुत: जीवन की वह क्रिया जिसके अभाव में मानव आगे नहीं बढ़ सकता, वही आवश्यक कहलाती है। जीवित रहने हेतु जिस प्रकार श्वांस लेना जरूरी है, उसी प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में जीवन की पवित्रता हेतु जो क्रिया या साधना जरूरी है, अनिवार्य है, उसे ही जैनागम परम्परा में 'आवश्यक' की संज्ञा से अभिहित किया गया है। अनुयोगद्वारचूर्णि में निर्दिष्ट है कि जो गुणशून्य आत्मा को प्रशस्त भावों से आवासित करता है, वह आवासक/आवश्यक है। अनुयोगद्वार की मलधारी हेमचन्द्र कृत टीका में निरूपण हुआ है - जो समस्त गुणों का निवास स्थान है, वह आवासक/आवश्यक है। अनुयोगद्वारसूत्र में इसके आठ पर्यायवांची नाम उपलब्ध हैं - आवश्यक, अवश्यकरणीय, ध्रुवनिग्रह, विशोधि, अध्ययन षटकवर्ग, न्याय, आराधना और मार्ग। इन नामों में किञ्चित अर्थबोध होने पर भी सभी नाम समान अर्थ में व्यवहृत होते हैं। __भारतीय साहित्य में 'आगम' शब्द शास्त्र का पर्यावाची है और सूत्र शब्द भी इन्हीं अर्थों में व्यवहत होता है। संघदासगणि ने बृहत्कल्पभाष्य में 'सूत्र' शब्द को व्याख्यायित करते हुए लिखा है - जिसके अनुसरण से कर्मों का सरण होता है, अपनयन होता है, वह सूत्र है। विशेषावश्यकभाष्य में निरुक्त विधि से अर्थ करते हुए लिखा गया है - जो अर्थ का सिंचन/क्षरण करता है, वह सूत्र है। आचार्य अभयदेव ने स्थानांगवृत्ति में निर्देश किया है - जिससे अर्थ सूत्रित/गुम्फित किया जाता है, वह सूत्र है।६ यदि उक्त तथ्यों पर दृष्टिपात् करें, तो यह निष्कर्ष निःसृत होता है कि आवश्यकसूत्र ऐसा ग्रन्थ है जिसमें जैन साधना व आचार के मूलभूत सिद्धान्तों का निरूपण हुआ है, जिसमें आध्यात्मिक समता, नम्रता प्रभृति सद्गुणों का विवेचन प्रचुर मात्रा में हुआ है और साथ ही इसके परिज्ञान से साधक अपनी आत्मा को निरखता*आई०सी० पी०आर० फेलो, दर्शन एवं धर्म विभाग, कला संकाय, का०हि०वि०वि० वाराणसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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